तीसरा मुद्दा - इसके लिये लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाज शास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये या आवर्तनशील अर्थशास्त्र, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये ?
चौथा मुद्दा - विखण्डनवादी (प्राकृतिक असंतुलनवादी) विज्ञान चाहिये या सहअस्तित्ववादी (प्राकृतिक संतुलनवादी) विज्ञान चाहिये ?
इन्हीं सकारात्मक-नकारात्मक अर्थात् अभी तक किया गया शिक्षा स्वरूप को नकारता हुआ और सकारात्मक पक्ष को प्रस्तावित किया हुआ का समर्थन में समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (सहअस्तित्ववाद) चाहिये या द्वन्दात्मक भौतिकवाद, संघर्षात्मक जनवाद, रहस्यात्मक अध्यात्मवाद (आदर्शवाद) चाहिए।
रहस्यमूलक ईश्वर केन्द्रित चिन्तन और अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिन्तन चाहिये या अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन चाहिये ?
यही मानव कुल को निश्चय करने का अवसर समीचीन हुआ है। इसे नकारने-सकारने के पक्ष में कही गई विश्व दृष्टिकोण, विचार शैली, शास्त्र प्रणालियों में से प्रभावित का परिचय अधिकांश लोगों के पास जाँच पड़ताल सहित धारक-वाहकता के रूप में प्रस्तुत है। और प्रस्तावित दर्शन बनाम चिन्तन, विचार शैली का नाम, प्रस्तावित शास्त्रों का नाम मानव के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। इस स्थली में, यहाँ इस “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” को अध्ययन करता हुआ मेधावियों के स्मरण में इस बात को ला रहे हैं कि प्रस्तावित चिन्तन-दर्शन, मध्यस्थ दर्शन, सहअस्तित्ववाद के नाम से तीनों वाद तीनों शास्त्र वाङ्गमय के रूप में प्रतिपादित, सूत्रित, व्याख्यायित विधि से प्रस्तुत कर चुके हैं। अतएव मानसिकता के आधार के रूप में भ्रमात्मक विधि से इस दशक तक मानव जो भुगत चुका है और प्रस्ताव के रूप में जागृति और अनुभव प्रमाण सहित जीने की आवश्यकता, उसकी सफलता के लिये सुयोजित मार्ग को प्रशस्त करना सर्वसुलभ करना ही हमारे प्रयासों का आशय है।
भ्रमित राज्य और धर्म के साथ व्यापार शोषणाधीन हो चुका है। व्यापार मानसिकता में शोषण का ही एकमात्र बुलंद आवाज है, उसमें सभी छल-कपट-दंभ-पाखण्ड समाया हुआ है। इसी क्रम में मानवेत्तर वस्तु व्यापार, मानव व्यापार, देह-व्यापार, धर्म व्यापार, ज्ञान व्यापार, तकनीकी व्यापार में अधिकाधिक व्यक्ति प्रवृत हो चुके हैं। इसका मूल कारण भ्रमित सामुदायिक परंपराएँ ही हैं। व्यापार विधि से हर मानव किसी न किसी का शोषण करता ही है। राज्य विधा में द्रोह-विद्रोह होता ही है। धर्म विधा में अपना पराया