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की बात पर जो परंपराएँ तुले हैं, यह पूर्णतया भ्रम है, क्योंकि अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है। सहअस्तित्व में रचना-विरचना एक आवश्यकीय घटना है क्योंकि परिणामानुषंगीय, बीजानुषंगीय रचना होना पाया जाता है, इन रचनाओं का विरचना होते हुए उन-उन रचनाओं में समाहित रासायनिक-भौतिक रचनाओं का विलगीकरण ही होता है। विरचनाएँ होने मात्र से उन-उन में निहित वस्तु का तिरोभाव अथवा नाश नहीं होता। इसी तथ्यवश अस्तित्व स्थिर, नित्य वर्तमान रूप में देखने को मिलता है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है - सहअस्तित्व नित्य प्रभावी है, वर्तमान है, क्योंकि अस्तित्व ही सहअस्तित्व है पुन: क्योंकि सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही नित्य वर्तमान है। यही अस्तित्व है। इस प्रकार हम निष्कर्ष पर आते हैं कि जो कुछ भी है - यह सहअस्तित्व ही है न कि एकान्त। अतएव एकान्त विचार प्रमाण विहीन होना सबको विदित हो चुकी है, इसीलिये जो है, परम सत्य के रूप में उसे स्वीकारना जागृति अथवा जागृति क्रम का द्योतक है।

आत्मा, परमात्मा, अस्तित्व

इन मुद्दों में से आत्मा, परमात्मा की चर्चा अनेक भांति से मानव कुल में फैल चुकी है। परमात्मा को व्यापक बताते हुए आत्मा को परमात्मा का अंश होने की परिकल्पना यह चर्चा का विषय रही, प्रमाणित वस्तु के रूप में धरती पर किसी ने देखा नहीं। जब हम सहअस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन विधि से अस्तित्व को देख पाये तभी यह पता लगा कि व्यापक वस्तु में अनंत वस्तु क्रियाशील है। ये सभी अनंत वस्तुएँ चार अवस्था में क्रियाशील हैं। चारों अवस्थाओं को प्रमाणित करने वाला वस्तु अनंत रूपी प्रकृति ही है। यही जड़ और चैतन्य रूप में विद्यमान वर्तमान है। व्यापक वस्तु रूपी सत्ता में ही अनंत वस्तु रूपी प्रकृति नियंत्रित, संरक्षित रहना देखा गया। इन सम्पूर्ण अनंत में चारों अवस्था का मूल प्रभेद तत्व परमाणु ही है अर्थात् विविध प्रकार से अभिव्यक्ति होने का मूल तत्व परमाणु है। परमाणु में समाहित एक से अधिक परमाणु अंशों के संख्या भेद से ही विभिन्न अवस्थाओं की अभिव्यक्ति सहज हो पायी। ये परमाणु, अणु व अणु रचित रचनाओं के रूप में रासायनिक, भौतिक क्रियाओं को सम्पन्न करते रहे है। परमाणु ही विकासपूर्वक गठनपूर्णता पद में वैभव होना देखा गया। इसी को चैतन्य इकाई (जीवन) नाम से इंगित कराया गया।

मानव परंपरा में जीवन अपने ही कल्पनाशीलता - कर्म स्वतंत्रता की ओर प्रवृत्त होते हुए जागृति की ओर बाध्य होता गया। जागृति जीवन सहज स्वीकृति रहता ही है। जागृति अर्थात् जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना क्रियाकलाप ही है। यह प्रमाणित करने के लिये, ऐसे प्रामाणिकता को पाने के लिये, सर्वमानव इच्छुक रहा है। इन्हीं अस्तित्व सहज जीवन सहज आधारों पर समुदायगत संकीर्णताओं और वैज्ञानिक कर्मगत धरती के साथ किये जाने वाले अनिष्ट क्रियाकलाप के प्रति अस्वीकृति होते ही आया। जागृति के

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