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चाहिये या साथ में जीना चाहिये? उत्तर साथ में जीना चाहिये मिलता है। इस प्रकार हमें समुदाय परम्पराओं के मान्यताओं से बेहतरीन मानव होने की इच्छा आज भी दिखाई पड़ते हैं।

यह सुस्पष्ट हो चुकी है कि मानव का दृष्टिकोण ही, विचार ही हर कार्यों का कारण है। विचारों का कारण दृष्टिकोणों के आधार पर ही निर्भर है। हर दृष्टिकोण मानव जीवन सहज जागृति क्रम, जागृति, जागृति पूर्णता और उसकी निरंतरता पर निर्भर है। जागृति का कारण अस्तित्व, अस्तित्व सहज सहअस्तित्व, सहअस्तित्व सहज परमाणु में विकास, परमाणु में विकास सहज गठनपूर्णता, परमाणु में गठनपूर्णता सहज जीवन, जीवन सहज दृष्टियाँ, दृष्टि सहज विचार, विचार सहज क्रियाशीलता, क्रियाशीलता सहज जागृतिक्रम, जागृति, जागृति पूर्णता नियति सहज क्रियाकलाप है। नियति सहज क्रियाकलाप का तात्पर्य विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम और जागृतिपूर्णता ही है। इसी क्रम में सम्पूर्ण अस्तित्व ही अभिव्यक्त है। इस प्रकार दृष्टि की क्रियाशीलता जागृति का कारण सहअस्तित्व ही है। इसी सत्यातावश हर मानव जागृति को प्रमाणित करने योग्य है। अस्तु, अस्तित्व सहज रूप में जागृति को प्रमाणित करना ही मूल कारण है।

सम्पूर्ण अस्तित्व जो कुछ भी अवस्थाएँ स्थितियाँ है, यथा-परमाणु, परमाणु अंश, धरती, एक सौर व्यूह, ऐसे ही अनंत सौर व्यूह जिसको ग्रह-गोल-नक्षत्र, तारागण, आकाशगंगा आदि नामों से हम मानव इंगित होते रहे हैं। यह सब सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज विधि से अस्तित्व ही है। इनमें से कोई-कोई धरती चारों अवस्था सहज अभिव्यक्ति सम्पन्न हो चुके हैं, कोई-कोई हो रहे हैं। कोई-कोई होने वाले हैं। इसीलिए अस्तित्व नित्य वर्तमान होना हमें समझ में आई है। इसीलिये अस्तित्व को परम सत्य के नाम से इंगित कराया गया है। अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति का मूल कारण सहअस्तित्व ही है।

एकान्त और सहअस्तित्व

आदि काल से आस्था के आधार रूप में एकान्त वास मान्यता के रूप में कहता हुआ देखने को मिल रहा है। इसके मूल प्रतिपादन में कोई एक महान ज्ञान और सर्वज्ञ शक्तिमान है जिससे ही सम्पूर्ण जीव-जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय होता है-ऐसे शक्ति के अनुग्रह से ही जीवनों का उद्धार हो सकता है। इसीलिये ऐसे अज्ञात शक्ति को प्रसन्न कर अनुग्रहित होने के लिये अनेक उपायों को प्रस्तुत किया है। यही अध्यात्मवाद, अधिभौतिकवादी, अधिदैवीयवादी मान्यताएँ प्रणीत हुआ, प्रचलित हुआ। इस प्रणयन में विविधता बना रहा। मूलतः यही मानसिकता है, विचारों में प्रभेद, मानसिकता में प्रभेद और समुदायों में प्रभेद होना दृष्टव्य है। इन्हीं प्रभेदता और उन-उन के प्रति कट्टरता है। इसी के साथ ही रूढ़ियाँ (एक परंपरा जिस प्रकार रूढ़ियों को बनाए रखता है - के अतिरिक्त बाकी सभी को गलत माने रहना।) यही

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