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भ्रमात्मक अहमता का मूल है। यह सुस्पष्ट है कि भ्रमात्मक अहमताएँ मानव के सामाजिक होने का सूत्र व्यवस्था अभी तक नहीं बन पाई। आगे भी नहीं बन सकेगा। इसका गवाही यही है कि भ्रमात्मक विधि से कोई भी सूत्र निर्धारित नहीं हो पाता। अहमतावश जिसको निर्धारण मान लेते हैं, उसका विरोध उसी समय से निर्गमित रहता ही है। जैसा विधर्मियों का नाश - यह सभी समुदायों का आवाज है। इसका विश्लेषण यही है कि एक समुदाय से मान्य रूढ़ियों अहमताओं के अतिरिक्त और जितनी भी अहमताएँ और रूढ़ी है उनके नाश की कामना। इन सभी रूढ़ी और अहमता के मूल में आस्था ही कारण है। आस्था का तात्पर्य यही है किसी वस्तु को हम नहीं जानते हुए उसके अस्तित्व को मान लेना। इसी आस्था के आधार पर अपने मनमानी रूढ़िगत अहमताओं को सुदृढ़ करते हुए जुटे रहना देखा गया है। यद्यपि हर आस्थाएँ शुभाकांक्षा से शुरू होते हुए किसी के नाश रूपी अशुभ के रूप में ही स्वयं के शुभ को मानने वाली स्थिति में आ जाता है। इसी आधार पर किसी भी प्रकार की आस्था अभी तक इस धरती में सार्वभौम होने में समर्थ नहीं हुआ। इस विधि से हम एकान्तवादी मान्यताओं के आधार पर, सार्वभौम नहीं हो पाये। क्योंकि हम मानव इस धरती पर एकान्तता का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। इसका तात्पर्य जिस एक में सम्पूर्ण जीव जगत विलय होने अथवा लय होने की बात कही गई; वह अभी तक इस धरती पर किसी व्यक्ति के द्वारा प्रमाणित नहीं हो पायी है। हर मानव हर दिन भौतिक-रासायनिक रचना-विरचनाओं को देखता है, इसी को सृष्टि और लय कहता है। इसी क्रम में लय को एक में अन्त (विलय) होने वाला और ऐसे एक से ही सभी सृजन होना बताया गया है। इन दोनों क्रियाकलाप के मूल अभिप्राय रूपी जिस एक से पैदा होना है, जिस एक में विलय होना है, वह मूल तत्व ही प्रमाणित नहीं हो पाया। उसके बारे में कुछ अटकलें लगाते रहे, तत्कालीन रूप में ठीक लगा होगा। क्योंकि हर व्यक्ति कुछ न कुछ मान्यता रखते हैं। जहाँ तक सृष्टि, स्थिति लय को घटना और मानसिकता के संयोग से भाषा के रूप में हम पाते हैं, इसे अधिकांश लोग मानते हैं। इस क्रम में एकान्तवाद रहस्यमय होना सर्वविदित है ही और एकान्त की कल्पना प्रमाणित होना, अभी भी प्रतीक्षित है ही।

व्यवहार, अनुभव और प्रयोगपूर्वक प्रमाणित होने की विधि हम पाये हैं सभी इस तथ्य को समझ सकते हैं। इसे सभी प्रमाणित कर सकते हैं। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन इसका आधार है। इस आधार के अनुरूप जीवन जागृतिपूवर्क अस्तित्व में अनुभूत होना एक स्वाभाविक उपलब्धि है। इस उपलब्धि की अपेक्षा हर मानव में है ही। हमें यह उपलब्ध है। इसी आधार पर (अनुभव के आधार पर) हम यह सत्यापित करते हैं - अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व है। सहअस्तित्व नियम है, नियन्ता नहीं है। सहअस्तित्व में भौतिक रासायनिक रचना-विरचना है, “लय” से इंगित कोई चीज नहीं है। विरचना को हम “लय” नाम रख सकते हैं। लय की परिकल्पना के अनुसार चीज गायब होने की बात, समाप्त होने के बात, अस्तित्व ही खत्म होने

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