होते हुए देखा गया है। अध्यात्म का परिभाषा सभी आत्माओं का आधार रूप में इंगित होना पाया जाता है क्योंकि सत्ता पारगामी है।
अस्तित्व में अनुभव विधि से यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है कि जीवन एक गठनपूर्ण परमाणु है, इसमें मध्य में एक ही अंश कार्यरत है। सत्ता पारगामी होने के कारण, पदार्थ सत्ता को घेर नहीं पाता। इसका साक्ष्य यही है, किसी भी एक दूसरे के साथ भार बंधन का मूल में पाये जाने वाले चुम्बकीय धारा संबंध क्षेत्र से मुक्त होने के उपरान्त शून्याकर्षण स्थिति में स्पष्ट हो चुकी है। ऐसे स्थिति में हर वस्तु अपने ही गति और मात्रा के परिसीमन में निरंतरता को प्राप्त किया रहता है, जैसे यह धरती, सौर व्यूह है। यहाँ उल्लेखनीय तथ्य इतना ही है, व्यापक वस्तु भाग-विभाग होता नहीं है और इन चारों अवस्थाओं की प्रकृति अथवा किसी एक अवस्था की प्रकृति व्यापकता में से किसी एक अंश को घेर लेने में समर्थ नहीं है। इसीलिये इकाईयाँ सभी ओर से सीमित रहती है, ऐसे सीमाएँ व्यापक वस्तु में घिरा हुआ ही दिखाई पड़ता है। इस तथ्य से यह भी इंगित हुआ और स्पष्ट हुआ है कि सत्ता में प्रकृति अविभाज्य है और वर्तमान है। इस प्रकार अध्यात्म का तात्पर्य भी यही सार्थक समझ में आता है, व्यापक में अनंत का अविभाज्य वर्तमान। यह अध्ययन इसीलिये समीचीन है, रहस्य से नित्य कुण्ठित मानव परंपरा रहस्य मुक्ति चाहता ही रहा।
भोक्ता, भोग्य, भोग
अस्तित्व में जीवन जागृति पूर्वक मानव परंपरा में दृष्टा पद प्रतिष्ठा को प्रमाणित करना ही जीवन सहज तृप्ति और अस्तित्व सहज व्यवस्था है। व्यवस्था में ही हर मानव वर्तमान में विश्वास करना और होना पाया जाता है। और किसी उपाय से अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ कि मानव को वर्तमान में विश्वास हो सके, कर सके। जीवन तृप्ति सहित मानव परंपरा तृप्ति, मानव परंपरा में, से, के लिये मूल उद्देश्य है। इसी सार्वभौम आशय को सार्थक बनाने के क्रम में हर व्यक्ति में स्वायत्तता, हर परिवार में समाधान, समृद्धि और सम्पूर्ण मानव में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व यही अपेक्षित भोग है। भोग के मूल में सुखापेक्षा का होना सर्वमानव में दृष्टव्य है। यह भी देखा गया है कि समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में जीवनापेक्षा सहज सुख, शांति, संतोष, आनंद वर्तमानित रहता है। मूल मुद्दा यही है कि सुविधाएँ और संग्रह इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक भोग, अतिभोग, बहुभोग इसे वर्तमान तक अर्थात् बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक अभिप्राय माना गया। इनके निष्कर्ष को इस प्रकार देखा गया कि संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग के क्रम में सुख भासते हुए उसकी निरंतरता नहीं होती - यह सर्वविदित है ही। जबकि हम मानव सदा-सदा से सुखापेक्षा से ही परम्परा क्रम में व्यक्त होते आ रहे हैं। यह घटना अर्थात् संग्रह - सुविधा मूलक सुखापेक्षाएँ सदा-सदा ही हर व्यक्ति में क्षणिकता में भंगुरता को सत्यापित कराते ही आया है। ऐसी क्षणिकता (सुख