अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन ही कैवल्य होना देखा गया है। कैवल्य अवस्था में सर्वतोमुखी समाधान अनुभव प्रमाण के आधार पर नित्य प्रवाह के रूप में होना पाया जाता है। कैवल्य अवस्था का महिमा यही है। इसी स्थिति में मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा पूर्णतया प्रमाणित संतुष्ट रहना देखा गया। यही भ्रम से मुक्त अवस्था है। बंधन मुक्ति का सकारात्मक स्वरूप जागृति पूर्णता ही है। भ्रमवश ही बन्धन का पीड़ा होना पाया जाता है। मानव परंपरा में पीढ़ी से पीढ़ी भ्रमित होने का कारण परंपरा ही भ्रमित रहना रहा है। मानव परंपरा पाँच आयाम में प्रमाणित रहना ही जागृति है। स्वभावत: मानव अनेक आयामों में व्यक्त व प्रमाणित होने योग्य इकाई है। उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता को साक्षित होने, रहने, करने योग्य इकाई है। यह सब कैवल्य पद में सार्थक व चरितार्थ होता है। दृष्टा पद जागृति योगफल में ही कैवल्य है न कि मोक्ष में।
मानव परंपरा जागृत होने के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण को तर्क संगत विधि से अध्ययनगम्य होने के प्रणालियों से अभिव्यक्त होने के फलन में मानव परंपरा जागृत होना स्वाभाविक है। इसका प्रमाणों का धारक-वाहक अध्यापक ही होना पाया जाता है। निर्देशिका के रूप में वाङ्गमय और धारक-वाहकता के रूप में अध्यापक ही हो पाते हैं। विद्यार्थियों को जागृत शिक्षा प्रदान करने में समर्थ होना स्वाभाविक है। इस क्रम में मानव परंपरा जागृत होने का संयोग समीचीन है। जागृति निरंतर, न्याय, समाधान, सत्य सहज होता ही है, इसका वैभव ही मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा के रूप में सार्थक हो जाता है। ऐसे सार्थकता को प्रमाणित करना ही जागृत मानव परम्परा का तात्पर्य है।
कैवल्य अवस्था में प्रमाणित होता हुआ मानव में यह भी देखा गया है कि शरीर यात्रा की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है। कैवल्य पद प्रतिष्ठा प्राप्त जीवन जागृति पूर्ण होने के आधार पर जीवन के संपूर्ण क्रियाकलाप शरीर विरचित होने पश्चात् अनुप्राणित रहना देखा गया है। जागृति केन्द्रित वैभव जागृतिमूलक विधि से सम्पूर्ण जीवन क्रियाकलापों में जागृति अपने आप में प्रवाहित होता हुआ देखा गया है बल एक स्थिति, शक्ति एक गति के रूप में कार्यरत रहता है। बल और शक्ति में अविभाज्यता नित्य वर्तमान है। मूलत: बल ही है, महिमा के रूप में शक्तियाँ है। अनुभव मूलत: सहअस्तित्व में जागृति है। अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में नित्य वर्तमान जीवन ही और जीवन में से आत्मा ही अस्तित्व में अनुभूत होना सहज है। अनुभव का स्वरूप जानने, मानने का तृप्ति बिन्दु पा लेना है। यही भ्रम निर्मूलन का प्रमाण है। अनुभव के अनन्तर अनुभव बोध होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे बोध में जानने, मानने की स्वीकृति बनी ही रहती है। यही ऋतम्भरा बुद्धि है। ऐसी बोध सम्पन्न बुद्धि का प्रवर्तन में ही सहज संकल्प, यथा सत्यपूर्ण संकल्प सुदृढ़ रहती ही है। इसीलिये सत्य सहज परावर्तन में दृढ़ता को संकल्प के नाम से इंगित कराया