गया। यह सत्य प्रभावी होना पाया गया है। सत्य सहज रूप में अस्तित्व ही है, इस तथ्य को यथा स्थान में स्पष्ट किया जा चुका है। यह नाम भी सत्य सहज दृढ़ता को इंगित कराता है। इस विधि से सत्य साक्षात्कार सहित चिन्तन सहज ही उत्सवित रहना देखा गया है। यही जीवन सहज नित्य उत्सव है। उत्सवापेक्षी चित्रण, तुलन, विश्लेषण , आस्वादन, चयन क्रियाएँ उत्सव से अनुप्राणित, उत्सवित रहते हैं। यह सब आत्म तृप्ति का ही द्योतक है। आत्मा निरंतर अनुभव तृप्ति सहज विधि से परमानन्दित रहना स्वाभाविक रहता ही है। इस क्रम में अनुभव सहज आनन्द, व्यवहार सहज सुख अपने आप में ध्रुव होना स्वाभाविक है, पुनश्च जागृति का स्वभाव होना देखा गया है। ऐसी नित्य उत्सव को ही कैवल्य का नाम दिया गया है।
नित्य उत्सव हर मानव का वांछित अभीप्सा है, जीवन सहज रूप में हर मानव शुभ स्वीकृति किया हुआ रहता है, जैसे सत्य, धर्म, न्याय स्वभाव इस प्रकार जीवन स्वीकृत तथ्यों के प्रति अपेक्षाएं रहना स्वाभाविक है। ऐसी अपेक्षाएँ सर्वमानव में विद्यमान है ही। इसीलिये सर्वमानव में, से, के लिये सर्वशुभ समीचीन है।
सर्वशुभ विधि जागृति मूलक अभिव्यक्ति और जागृतिगामी शिक्षा-संस्कार ही है। यही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र है। इस विधि से अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्त होने का कार्यक्रम ही शिक्षा-संस्कार के रूप में प्रभावित व वांछित होना देखा गया है। इन तथ्यों को हृदयंगम करने के लिये “समाधानात्मक भौतिकवाद”, “व्यवहारात्मक जनवाद” को अवश्य ही अध्ययन करें। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज विधि से अस्तित्व सदा-सदा ही विकासोन्मुखी सहअस्तित्व होने के कारण समाधान के अनंतर समाधान ही होना देखने को मिलता है। विकास का हर बिन्दु, हर कड़ी, हर अवस्था अपने आप में समाधान होना दिखाई पड़ती है। हर व्यक्ति को इसे हृदयंगम करना आवश्यक है।
जो कुछ भी हम अनुभव, बोध, चिन्तन, चित्रण, विश्लेषण पूर्वक मानसिकता को बनाये रखते हैं। ऐसे स्थिति में हर मानव व्यवहार में सामाजिक होना, परिवार समृद्ध होना पाया जाता है। इस तथ्य के आधार पर “व्यवहारात्मक जनवाद” स्रोत को और आधार को मानव के रूप में पाते हैं। इस विधि से मानव ही प्रमाणों का आधार होना पाया गया है। अस्तित्व नित्य वर्तमान है ही, मानव ही प्रमाण कर्ता है। प्रमाण कर्ता का तात्पर्य परम्परा में प्रमाणों को उद्घाटित करने, प्रमाणित करने और बोध कराने योग्य इकाई है।
मानव परंपरा व्यवहार, अनुभव और प्रयोग विधियों से प्रमाणित होना पाया जाता है। प्रमाणित होने के लिये उभय पक्ष की आवश्यकता है। इसलिये प्रबोधन, संबोधन होने रहने की स्थिति बनी रहती है। अनुभवमूलक विधि से ही प्रयोग व्यवहार प्रमाणित होता है। मानव समझता है इसलिये प्रयोग है। प्रयोग अपने आप में होता नहीं। सभी प्रयोगों का दृष्टा मानव ही है। ऐसे प्रयोगों में, से अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में, से, के लिये साधन रूप में उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील होने वाली सभी उपलब्धियाँ, मानवीयतापूर्ण प्रयोगों