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भी बहु कारणों से समुदायों को अलग-अलग श्रेष्ठ-नेष्ठ बताने के लिए प्रयास किया गया, वाङ्गमय बनाये गये और उनके आधार पर आचार संहिता बताई गई। अभी तक यही निष्कर्ष निकला है कि सार्वभौम रूप में मानव को पहचानने का विधि स्थापित नहीं हुआ। जबकि सुदूर विगत से ही यह प्रयास जारी रहा है।

जैसा-जैसा मानव अधिकाधिक आयामों में अपने को सार्थक बनाने जाता रहा उनके सम्मुख उतना ही अधिक जटिलताएँ आता रहा। इन सभी कुण्ठा, प्रताड़नाओं को झेलता हुआ मानव लुके छिपे विधियों से अपने में अच्छाइयों को पालने का भी बहुत सारा प्रयत्न करता रहा। ये सब करने के उपरांत भी अच्छाइयों का तृप्ति बिन्दु कहीं मिल नहीं पाया। इन्हीं सब विरोधाभासी घटनाक्रम में मानव अपने को पहचानने की अभीप्सा को बरकरार रखा। यही मुख्य रूप में परंपरा का देन है। इसी क्रम में पहले कहे गये चारों विभूतियों के गुजर रहे हैं। इन्हीं में उतरता-चढ़ता रहा विभिन्न समुदायगत मानव दृष्टव्य है।

प्रधान उलझन यही है मानव शरीर मूलक व्यवस्था है या जीवन मूलक व्यवस्था है? यदि जीवन मूलक व्यवस्था है, ऐसी स्थिति में जीवन क्या है? कैसा है? क्यों है? इन्हीं प्रश्नों से बोझिल होता है। इसका उत्तर भौतिकवादी, अधिभौतिकवादी व अध्यात्मवादी विधि से व अधिदैवीवादी विधियों से अध्ययन प्रक्रिया सहित कोई तथ्य कल्पना प्रस्तुत नहीं कर पाया। विचार तो काफी दूर रहा। इसका उत्तर “अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन” से प्राप्त किया जाना सहज सुलभ है। यह रहस्यों और अनिश्चयताओं से मुक्त विधि है, और क्रम पूर्वक हृदयंगम होता है। इसी बिन्दु पर सुस्पष्टता के लिये विभिन्न स्थलियों में आवश्यकतानुसार अवगाहन योग्य तथ्यों को प्रस्तुत किया।

अस्तित्व सर्वमानव को स्वीकृत होने के रूप में अनेकानेक ग्रह-गोल, ब्रह्माण्ड, यह धरती, धरती में पानी समुद्र, नदी, नाला, हवा, वन, खनिज, जीव-जानवर, कीट-पतंग, पशु-पक्षी का होना आबाल वृद्ध पर्यन्त हर व्यक्ति को समझ में आता है। इस धरती पर स्वयं के सदृश्य बहुत सारे लोग का होना भी स्वीकार होता है। इस परिशीलन से मानव सहित अस्तित्व सहज वर्तमान स्वीकार्य होता है। इससे आगे का मुद्दा मानव ही अस्तित्व का दृष्टा, अर्थात् देखने-समझने वाला इकाई है।

उक्त तथ्य आदिकालीन मानव के सम्मुख भी यथावत् बना ही रहा। इन सबको बनाने वाला कोई और है; ऐसा मानने वाले बनाने वाले को खोजने-मानने और मनाने के कार्य में लग गये। इस मुद्दे पर धरती के सभी प्रकार के समुदाय फँसे ही है। जबकि धरती में स्थित ये सभी परस्परताओं में पूरक और विकासक्रम में काम करते रहते हैं। इसे दूसरे भाषा में यह कहना बनता है नियंत्रित, नियमित विधि से काम करते रहे हैं। विकास के आधार पर हर वस्तु अपने-अपने पद प्रतिष्ठा में रहता ही है। ऐसे निरंतर रहने वाली वस्तुएँ मूलत: एक-एक के रूप में अनन्त वस्तुएँ और व्यापक वस्तु में होना सबको समझ में आता है। इसी मूल

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