जाते हैं उसी क्षण में यह निश्चयन होती है कि जीवन क्रियाएँ सभी जीवन में समान होना पाया जाता है। जीवन शक्ति और बल भी अपने में अक्षय होना जीवन क्रिया और उसकी अक्षुण्णता समझ में आते ही उसकी अक्षुण्णता का बोध होता है। अवधारणा सुदृढ़ हो जाती है। इसी तथ्य वश जीवन शक्तियों और बलों की अक्षयता इनको कितने भी उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता विधि से नियोजित करने के उपरांत भी जीवन शक्ति और बल यथावत रहना स्वयं में, से के लिए अनुभूत होता है। अनुभूत होना ही जागृत होना है। जीवन ज्ञान सहित ही अस्तित्व में अनुभूत होना स्वाभाविक होता है। फलस्वरूप जीवन सहज जागृति मानव सहज जीवन लक्ष्य समान होना विदित होता है। इस प्रकार जीवन लक्ष्य, जीवन शक्तियाँ, जीवन बल, जीवन सहज क्रियाकलाप और जीवन रचना प्रत्येक जीवन में समान होना अनुभव होता है। फलस्वरूप सहअस्तित्व में विश्वास होना, अनुभव होना स्वाभाविक है। फलस्वरूप सर्वशुभ में, से, के लिए जीना स्वाभाविक प्रक्रिया बनती है। यही सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज का मूल सूत्र होना पाया जाता है न कि शरीर रचना की विविधता।
जागृत जीवन विधि से ही मानव परंपरा में अनुभव प्रमाण और प्रयोग प्रमाण व्यवहार में सार्थक विधि से प्रमाणित होता है। यही अनुभवमूलक जागृति सहज जीने की कला, उसकी महिमा है।
अस्तित्व में दो ध्रुव पहले स्पष्ट किये जा चुके हैं - अस्तित्व स्थिर, विकास और जागृति निश्चित। इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य में मानव संचेतना और व्यवहार देखने को मिला है क्योंकि अस्तित्व में ही मानव परंपरा अविभाज्य वर्तमान है। अतएव मानव अपने जीवन सहज जागृतिपूर्वक समाधानित और समृद्धि सम्पन्न होना पाया जाता है।
अस्तित्व में अनुभव ही जागृति का परम प्रमाण है। यह व्यवहार में ही सार्थक एवं परंपरा सहज प्रयोजन सार्थक होना पाया जाता है। परंपरा सहज जागृति सर्वशुभ का सूत्र और स्त्रोत होना देखा गया है।
परंपरा अपने में पीढ़ी से पीढ़ी के लिए सूत्र है ही-भले ही समुदाय विधि से हो या अखण्ड समाज विधि से हो। अखण्ड समाज विधि जागृति का द्योतक है एवं समुदाय विधि भ्रम का द्योतक है यह स्पष्ट है। समुदाय विधि से मानव स्वायत्त होना नहीं हो पाता है पराधीनता बना ही रहता है। अखण्ड समाज विधि से ही मानव में स्वायत्तता परंपरा शिक्षा-संस्कार विधि से संपन्न होता है। इसका प्रमाण अर्थात् स्वायत्तता का प्रमाण परिवार में होना देखा गया। परिवार मानव में सहअस्तित्व सूत्र से स्वायत्तता का प्रमाण सिद्ध हो जाता है। यह प्रचलित होने के लिये परंपरा की आवश्यकता है। दूसरे भाषा से सर्वसुलभ होने के लिए अथवा लोकव्यापीकरण होने के लिए परंपरा की आवश्यकता है।