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मानव प्रकृति की प्रत्येक इकाई में अविभाज्य रूप, गुण, स्वभाव, धर्म रूपी मात्रा को जानने, मानने, पहचानने व निर्वाह करने योग्य इकाई है। यह जागृतिपूर्वक हर व्यक्ति में, से, के लिये समान है। इसके लिये मानव परंपरा जागृत रहना अनिवार्य है। परंपरा इससे वंचित, विमुख, अनदेखी करते हुए विखण्डन के आधार पर अथवा गति रत वस्तु का ध्रुव बिंदु न पहचानने के आधार पर मूलत: वस्तु अस्थिर, अनिश्चित मान लेना और मना लेना आमूलत: भ्रम है और गलती है जबकि अस्तित्व स्थिर, अस्तित्व में विकास और जागृति निश्चित है।

इन्द्रिय सन्निकर्ष में ही ‘अनुभव होता है’ ऐसा मानना और मनवाना, इसको लोकव्यापीकरण करने का सभी उपाय तैयार करना, साथ ही लाभोन्माद, कामोन्माद और भोगोन्मादी मानसिकता को कार्यशील, प्रगतिशील, विकासशील और अत्याधुनिक मानना और मनाना अथ से इति तक भ्रम है। जबकि जीवन्त शरीर में ही इन्द्रिय सन्निकर्ष होना देखा गया है। जीवन ही शरीर को जीवन्त बनाए रखता है। सत्य भासने के लिये शरीर और जीवन का सहअस्तित्व आवश्यक है। इसी क्रम में जीवन, जागृति और जागृति पूर्णता को प्रमाणित करता है। जागृति को प्रमाणित करने की इच्छा प्रत्येक मानव में समाहित रहता ही है। इसे सार्थक और लोकव्यापीकरण करने के लिये परंपरा का जागृत होना अनिवार्य है। इसी विधि से अर्थात् जागृतिपूर्ण परंपरा विधि से ही जीवन में अविभाज्य वर्तमान मध्यस्थ क्रियारत ‘आत्मा’ ही अस्तित्व में अनुभव करता है, करने योग्य है।

विज्ञान और भोग, अतिभोग, संग्रह, सुविधा मानसिकता में आँखों में देखा हुआ को सत्य मान लेना और मनाता हुआ परंपरा को देखा गया है। यह अथ से इति तक भ्रम और गलत है क्योंकि गणित आँखों से अधिक और समझ से कम होता है। समझ ही प्रमाणपूर्वक परंपरा में लोकव्यापीकरण होने की वस्तु है और अनुभव ही व्यवहार में न्याय, धर्म और सत्य सहज विधि से प्रमाणित होती है। यह लोकव्यापीकरण होने के लिये परंपरा को जागृत रहना आवश्यक है।

आँखों से जो कुछ भी दिखता है वह किसी वस्तु के रूप (आकार, आयतन, घन) में से आंशिक भाग दिखाई पड़ता है। रूप का भी सम्पूर्ण भाग आँखों में आता नहीं। जबकि हर वस्तु, रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में अविभाज्य वर्तमान है। यह जागृतिपूर्ण शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण होता है।

मानव से रचित यंत्र और मापदण्ड से मानव को प्रमाणित करना संभव नहीं है। परन्तु यह संभव है ऐसा मानना और शिक्षापूर्वक मनाना अत्यंत भ्रम और गलती है। जबकि मानव ही यंत्र और मापदण्ड को प्रमाणित करता है। इसके मूल में भी मानव की मान्यता ही रहती है। उल्लेखनीय घटना यह है कि विज्ञान अपने यंत्र प्रमाण के आधार पर अपने सभी बातों को मनवाता आया। इसके पहले आदर्शवादियों ने

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