प्राकृतिक घटनाओं और विपदाओं के आधार पर ईश्वर और ईश्वरीयता को मनवाया। जबकि यह दोनों भ्रम ही रहा। क्योंकि हर मानव जागृतिपूर्ण स्थिति में सम्पूर्ण यंत्रों और मापदण्डों से बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है। सभी यंत्रों का चित्रण और रचना मानव ने ही किया है, यह स्पष्ट है। एक मानव जो किया है उसे हर मानव कर सकता है, जो सीखा है सभी व्यक्ति सीख सकता है। इस प्रकार इन दोनों से सभी मानव का समानता समझ में आता है। इस धरती पर अनेकानेक शताब्दियों से मानव का आवास होते हुए अभी तक यह वर्गीकृत, रेखाकरण सम्भव नहीं हो पाया कि एक व्यक्ति जो करता है, सीखता है उसे दूसरे वर्ग, संप्रदाय, मत, पंथ, धर्म कहलाने वाले सीखता नहीं है, कर नहीं सकते हैं। यह स्पष्टतया परंपरा में देखने के उपरान्त भी गोरे-काले का आवाज पंथ, संप्रदाय, मतों और धर्म के नाम से द्वेष और संघर्ष को निर्मित करने वाला आवाज देखने-सुनने में आ ही रहा है। यह अथ से इति तक भ्रम और गलती है।
मानव धर्म अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान पर आधारित व्यवस्था में जीने देकर जीना है। इसकी सार्वभौमता सर्व स्वीकृत है। समुदाय परंपराओं में धर्म के नाम पर अनेक मान्यताओं को द्वेष सहित समुदाय के जनमानस को मनाना और स्वयं माने रहना, ऐसे मानने के लिये सम्मति देना, ये सब मूलत: अथ से इति तक भ्रम और गलतियाँ है।
जागृतिपूर्ण परंपरा में ही सार्वभौम धर्म-कर्म (मानवीयतापूर्ण धर्म-कर्म) तदनुरूप विचार शैली और व्यवहार तथा अनुभव ही संतुलित रूप और गति है। यह सर्वमानव में समान रूप से वर्तमान होना समीचीन है। यही जागृति परंपरा का स्वत्व है।
सम्पूर्ण भ्रम-निर्भ्रमता में और सम्पूर्ण गलती-सुधार में ही विलय को प्राप्त करते हैं। नेक इरादे से सम्पूर्ण आदर्शवादी परिकल्पना, दास और दासतावादी मानसिकता और यात्रा; सम्पूर्ण विज्ञान और भौतिक विचार, सुविधावादी मानसिकता के साथ-साथ प्रकृति पर शासन, दासतावादी मानसिकता से मानव पर शासन, अंततोगत्वा संघर्ष युग में अंत होता रहा। यही सभी गलतियों का अंतिम परिणाम रहा। इस दशक तक पुन: भाषा में इंगित कराए सुविधा और युद्ध ही मानव परंपरा को अपने पंजे में जकड़ लिया है। यही सम्पूर्ण गलती का फल है।
इन समस्त गलतियों का सुधार अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन ही है।
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