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अनेक समुदाय परिकल्पना और उसकी समीचीनता के मुद्दे पर समीक्षा के लिये, स्मरण के लिये इतिहास भी आवश्यक है। मानव इतिहास के अनुसार नस्ल-रंग के आधार पर समुदायों को पहचाना। इसके अनन्तर वस्तु संग्रह और विपन्नता के आधार पर समुदायों को पहचाना। उसके अनन्तर आजीविका के कार्यों के आधार पर समुदायों को पहचाना गया। उसके अनन्तर भाषा, देश और विभिन्न आस्थाओं के आधार पर समुदायों को पहचाना गया। अभी, इस दशक में देशों के अर्थ में विकसित, विकासशील और अविकसित के रूप में पहचाना जा रहा है। मानव के रूप में संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग, बहुभोग, इसके विपरीत विपन्नता के रूप में अधिकांश समुदायों को पहचाना जाता है। जब कभी भी लड़ाई करना होता है तब परस्पर कट्टर पंथी जाति, मत, संप्रदाय और धर्म की दुहाई दी जाती है। सभी प्रकार के समुदाय वैचारिक मतभेदों, सविपरीत अथवा परस्पर प्रतिकूल मान्यताओं के रूप में गण्य है।

ऐसे पहचाने गये सभी समुदाय बंधन और मोक्ष की चर्चा अवश्य करते हैं। बंधन के कारण को स्पष्ट न कर पाना, मोक्ष को स्पष्ट न कर पाना और मोक्ष के लिये सार्वभौम उपाय का प्रतिपादन नहीं हो पाना यही मतभेद विभिन्न संस्कृति का आधार मानने का भ्रम जाल बन गया। इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक पूर्ववर्ती दोनों विचार धाराओं के अनुसार एक सार्वभौम दिशा, मार्ग स्पष्ट नहीं हुई, जबकि आवश्यकता बलवती होती आई है।

अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन धारा विधि से सम्पूर्ण अस्तित्व के रूप में अनुभव करने के फलस्वरूप बन्धन का स्वरूप, कारण तथा मोक्ष (मुक्ति) की आवश्यकता उसके लिये सहज और सार्वभौम उपाय अध्ययन गम्य होता है। यही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का आधार सूत्र और व्याख्या भी जागृत मानव का ही आचरण है।

इस अध्याय के आरंभ से ही ‘बन्धन’ और ‘मोक्ष’ नाम के मुद्दे पर छः (6) प्रश्न है :-

1. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो बन्धन में पड़ा रहता है?

2. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो बांध कर रखती है?

3. ‘वस्तु’ के रूप में कौन सी चीज है जो मुक्ति दिला देता है?

4. ‘वस्तु’ के रूप में ऊपर कहे गये ‘तीनों’ कहाँ है?

5. क्यों ऐसे बन्धन कृत्य को करता है?

6. जो बन्धन था, मुक्ति पाने के बाद उसका प्रयोजन क्या है?

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