के रूप में साक्षित है। यही भ्रम का प्रथम चरण है। इस चरण में भ्रम की पीड़ा या बन्धन की पीड़ा प्रभावित प्रमाणित नहीं होती है। इसके साथ तर्क रूप में यह संशय हो सकता है कि भ्रम की पीड़ा के बिना किस विधि से जागृति क्रम में मानव ने आरंभ किया ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इसके पहले प्राणकोषाओं में रचना विधि सूत्रित रहना एक रचना विधि परंपरा के रूप में स्थापित होने के उपरांत रचनासूत्र अपने ही उत्सव सहज अनुसंधान क्रम में अन्य प्रकार की रचना विधि को स्वीकारा रहता है। इसी आधार पर पहले किसी न किसी शरीर और वंश के माध्यम से अग्रिम वंश के लिए योग्य शरीर निष्पन्न हो जाती है। इसका मूल तत्व रचनासूत्र में होने वाली तृप्ति का उत्कर्ष ही है। रचनाक्रम और विधियाँ जब वंश और बीज के रूप में स्थापित हो जाती है, वह रचनासूत्र अपने आप में तृप्त होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार रचनासूत्र अपने कार्य कलापों के साथ अग्रिम कार्यकलापों के लिए अपने तत्परता को अर्पित करते हैं फलस्वरूप अनुसंधानात्मक रचनासूत्र स्वीकृति सम्पन्न हो जाता है। यही अनुसंधानित बिन्दु है यह अनुसंधान रचना क्रम में ही समृद्ध होता हुआ देखने को मिला। इसी विधि से मानव शरीर रचना अन्य परंपरा में से निष्पन्न होने के उपरान्त मानव परंपरा सहज शरीर रचनाएँ वंशानुक्रम विधि से स्थापित हुई। मानव शरीर रचना परिष्कृत रचना होना इस प्रकार से स्पष्ट हुआ कि मानव शरीर द्वारा मानव परंपरा में सुखाभिलाषा बलवती होती आई, जबकि आरंभिक समय में जीवों के सदृश्य ही भ्रम बन्धन पूर्वक जीने की आशा सहित ही व्यक्त होना हुआ। सुख की चाह बलवती होने के फलस्वरूप ही जीवों से भिन्न तरीकों से शरीर संरक्षण विधियाँ, शरीर पोषण विधियाँ परंपरा में स्थापित हुई। इसमें विविधताएँ अवश्य रही। शरीर पोषण संरक्षण का लक्ष्य समान रहा। इसीलिये शरीर से सुखी होने की तत्परता बढ़ी। भ्रम बन्धन पहले से जीवन में समायी रही। शरीर से ही सुखी होने की तत्परता बढ़ी। सुखाभिलाषा का तृप्ति बिन्दु नहीं मिल पाया। पुरजोर से इसके लिये प्रयत्न हुआ। अतिभोग-बहुभोग के ओर पहुँचने के लिए धरती की बलि चढ़ाई गई। इस दशक तक धरती को सर्वाधिक रूप में घायल कर चुके हैं। इसमें सर्वाधिक सक्रियता से भागीदार विज्ञान संसार एवं प्रौद्योगिकी कार्यक्रम रहा और भोगवाद के आधार हर व्यक्ति का आंशिक भागीदारी होना देखा गया। इस विधि से भ्रम बन्धन के परिणाम स्वरूप अव्यवस्थावश पीड़ा बढ़ी। यह पीड़ा भी मानव द्वारा किये गये कार्यों, व्यवहारों, सूझ-बूझों के परिणाम से निष्पन्न हुई है इसमें और किसी वस्तु का हाथ नहीं है।
इसी जागृति क्रम में भय, प्रलोभन, आस्था को पहचानना बना। आस्थाएँ विरोध-विद्रोह से छूटी नहीं। युद्ध घटनाएँ बारंबार दोहराई गई किन्तु युद्ध लोकमानस में पचा नहीं। समर वाद, समर शक्ति, समर विज्ञान को बनाये रखने के लिये द्रोह, विद्रोह, शोषण, अपना-पराया का होना देखा गया। यह भी पीड़ा का एक भाग हुआ। शासन विधि में अपनाई गई (धर्मशासन, राज्यशासन) दंड विधान भी दर्द, यंत्रणा का कारण हुआ। धर्म संविधान के अनुसार महिला और पुरुषों में अधिकार भेद सर्वाधिक यंत्रणा का आधार हुआ।