परिवार में जितने भी सदस्य होते हैं उनमें अधिकार भेद ही यंत्रणा और अविश्वास का आधार हुआ। व्यापार और प्रौद्योगिकी प्रतीक मुद्रा रूपी पूंजी के आधार पर चंगुल में आ गई। इस दशक तक अधिकांश प्रौद्योगिकी, कारखानाएँ स्वचालित विधि को अपनाया गया है। इसमें सर्वाधिक पूँजी निवेशी विधि को अपनायी गई। पूँजी का संग्रहण, ब्याज प्रथा, शोषण, लाभांश के रूप में गण्य होना पाया गया। पूँजी, पूँजी से बढ़ता गया। पूँजीहीनता भी और बढ़ता गया। ये सब परिवार और प्रौद्योगिकी संस्था में भागीदारी करता हुआ लोगों में द्वेष का, ज्यादा-कम का आधार हुआ। अभी तक द्वेष, विरोध, विद्रोह विहीन परिवार परंपरा नहीं बन पाई थी। स्वायत्त मानव के रूप में प्रमाणित होने का अधिकार सम्पन्नता उसका प्रभाव नवें दशक से प्रमाणित होना शुरू हुआ। दसवें दशक में स्वायत्त मानव के उम्मीदवार बढ़ चुके हैं। ये सब पीड़ा क्रम में परिवर्तन की आवश्यकता और परिवर्तन की संभावना और परिवर्तन के प्रमाण तक पहुँचने का एक अध्याय सम्पन्न हुआ है।
जागृति क्रम विधि से पारिवारिक और सामूहिक रूप में किये गये कृत्यों के आधार पर पीड़ा बलवती होने का स्वरूप को स्पष्ट किया गया। इसी से व्यवहारिक रूप में भ्रम और बन्धन परस्पर मानव के बीच में द्वेष के रूप में, परिवार-परिवार एवं समुदाय-समुदाय के बीच में वैचारिक मतभेद, ईर्ष्या, द्वेष, भय, संघर्ष के रूप में होना देखा गया। मानसिकता के रूप में अर्थात् आशा, विचार, इच्छा के रूप में व्यक्तिवादी अहमताएँ श्रेष्ठता, संग्रह, भोग के आधार पर गण्य हुई। जीवन अपने क्रिया के रूप में आस्वादन, विश्लेषण से अधिकाधिक चित्रण क्रिया को सम्पादित किया। सम्पूर्ण चित्रण इसी धरती के वस्तुओं को उपयोग करते हुए प्रमाणित करने की विधि तैयार हुई। इस प्रकार से धरती के वस्तुओं को सर्वाधिक दोहन करने के फलस्वरूप धरती का ही संतुलन, भाँति-भाँति विधि से खंडित होना आंकलित हुआ। यही सर्वाधिक पीड़ा का आधार हुआ। अभी भी बुद्धिजीवी और विज्ञानियों में से बुद्धिजीवी अपने बुद्धिवादिता के आधार पर धरती और धरती के वातावरण के असंतुलन में अपनी भागीदारी को कम स्वीकारते हैं। दूसरी ओर विज्ञान और प्रौद्योगिकी संसार में भागीदारी करता हुआ विज्ञानी, मनीषीयों में अपने को धरती के असंतुलन में प्रधान कारक तत्व होने की स्थिति को कम लोग स्वीकारते हैं। इस मुद्दे पर पीड़ित लोगों की संख्या अभी भी न्यूनतम ही है। फिर भी पीड़ित लोगो का संख्या बढ़ रही है।
तात्विक रूप में अर्थात् जीवन अपने तत्व रूप में न्याय दृष्टि की क्रियाशीलता के लिए एक तड़प अथवा प्यास उत्पन्न हो चुकी है। विगत 50 वर्ष से शैशवकालीन मानसिकता में जन्म से ही न्याय का अपेक्षा बना रहना सर्वेक्षित हुआ। कुछ समाज सेवी संस्था भी न्याय के नाम से अपेक्षाओं को व्यक्त करते ही है। इस दशक तक न्यायालयों में न्याय का स्वरूप स्पष्ट नहीं है। लोक मानसिकता में न्याय सहज अपेक्षा बढ़ता