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का शोषण, वन का शोषण, मानव का शोषण के रूप में देखने को मिलता है। यही वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी तंत्र का चमत्कार रहा। सभी सामुदायिक शासन अपने विवशता सहित अपने सामरिक सामर्थ्य को बुलंद करने के लिये देशवासियों को एकता अखण्डता का नारा सहित किये जाने वाले सत्ता संघर्ष भी इच्छा बंधन क्रम में एक बुलंद प्रयास और आवाज सहित प्राप्तियाँ होना देखा जाता है। इसी क्रम में यह भी देखा गया विरक्ति, असंग्रहता का दुहाई देने वाले सभी धर्मगद्दी इच्छा बन्धन के तहत अनेक सुविधाओं को इकट्ठा करता हुआ शोषणपूर्वक अथवा परिश्रम के बलबूते पर विविध प्रकार से अपने-अपने वैभव को (इच्छा बन्धन रूपी वैभवों को) व्यक्त करता हुआ देखा गया है। इसमें जो असफल रहते हैं वे सब कुण्ठित और चिन्तित रहता हुआ देखने को मिलता है। इसी प्रकार शिक्षा गद्दी भी इच्छा बन्धन के अनुरूप ही शैक्षणिक कार्य, वाङ्गमय अभीप्साओं को स्थापित करने के कार्य में व्यस्त रहता हुआ देखने को मिला। इस दशक तक स्थापित, संचालित तथा कार्यरत शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत व्यक्ति, प्राध्यापक, आचार्य वेतनभोगी होते हुए देखा जाता है। यह इच्छा बंधन का ही प्रमाण है और हर विद्यार्थी को नौकरी (वेतनभोगी) अथवा व्यापारी (शोषणकर्ता) के रूप में स्थापित करता है और इन दोनों क्रियाकलाप का लक्ष्य सुविधा, संग्रह, भोग ही है। यह इच्छा बन्धन का इस दसवीं दशक तक मानव परंपरा का समीक्षा है।

‘भ्रम और बन्धन’ की पीड़ा की पराकाष्ठा किसी न किसी को होना आवश्यक था। यह नियतिक्रम में विधिवत घटित हो ही जाता है क्योंकि अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में परम लक्ष्य स्थिति निश्चित और स्थिर है। क्योंकि अस्तित्व स्थिर है, जागृति निश्चित है। इसे प्रमाणित होने के लिये, करने के लिये सहअस्तित्व सहज क्रिया, प्रक्रिया, प्रणाली, पद्धतियाँ अस्तित्व और जागृति के मध्य में सुस्पष्ट है। अस्तित्व का होना नित्य वर्तमान के रूप में दृष्टव्य है। सहअस्तित्व में ही ज्ञानावस्था सहज मानव प्रकृति जड़-चैतन्य के संयुक्त रूप में परम्परा सहज विधि से जागृति सहज प्रमाण होना पाया जाता है।

मानव परंपरा जागृति क्रम में इस शताब्दी के अंतिम दशक तक जूझता ही रहा है। अब जागृत परंपरा के रूप में प्रमाणित होने का सहज समीचीनता देखने को मिल रहा है क्योंकि अनुभवमूलक संप्रेषणा सुलभ हो गया है। इसी के प्रमाण में यह ग्रंथ सूचना के रूप में प्रस्तुत है। प्रमाण का स्त्रोत हर जागृत मानव ही है। अनुभव प्रमाण परंपरा में मानव ही मानव के लिये प्रेरक, कारक होने की विधि से लोकव्यापीकरण करता है।

भ्रम मुक्ति की कल्पना मानव परंपरा में आदिकाल से अथवा सुदूर विगत से रही है। अर्थात् भ्रम से मुक्त होने का आश्वासन वाङ्गमयों में सुदूर विगत से सुनने को मिलता है, उनका भाषा जीवन मुक्ति रही है। भाषा के रूप में यह प्रचलित है ही। मुख्य रूप में बंधन का स्वरूप, मुक्ति की आवश्यकता, उसकी समीचीनता

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