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से ही जागृति प्रतिष्ठा स्थापित करना सहज है। क्योंकि जागृत परंपरा में स्वायत्त मानव के लिए अति आवश्यकीय शिक्षा-संस्कार सहज रूप में उपलब्ध रहता ही है। अतएव भ्रमबन्धन का निरन्तरता केवल जीवावस्था में ही प्रमाणित होता है। मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में, से, के लिए भ्रमबन्धन की आवश्यकता सर्वथा निरर्थक, अनावश्यक होना पाया गया है।

सर्वप्रथम भ्रम और बन्धन का कार्य रूप, परमाणु में अणु बंधन, भार बन्धन से मुक्ति के अनन्तर; भ्रम ही आशा बन्धन रूप में व्यक्त होना जीव संसार में प्रमाणित होता है। चैतन्य पद में प्रतिष्ठित होने पर आशा, विचार का क्रियाशीलता, कम से कम आशा की क्रियाशीलता होना पाया जाता है। इसका प्रमाण रूप जीवन स्वयं अपने कार्य गतिपथ को अपने ही आशानुरूप स्थापित कर लेता है। आशा का मूल सूत्र जीने की आशा ही है। जीने की आशा जीवनगत मन सहज आस्वादनापेक्षा का प्रकाशन है। यही जीवावस्था में स्पष्ट है।

गठनशील से गठनपूर्ण परमाणु बनना ही संक्रमण है। संक्रमण का स्वरूप और कार्य निश्चित बिंदु के पहले और बाद की मध्य रेखा ही है जिसकी लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई कुछ भी नहीं रहती है। इस संक्रमण गामी परिणाम को केवल मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा महिमावश समझना परम सहज और परम आवश्यक है। यह संक्रमण के अनन्तर जीवन सहज कार्य प्रतिष्ठा को किसी भी यंत्र से या मानव आँखों से देखना सम्भव नहीं है क्योंकि आँखों से गणितीय भाषा अधिक है अर्थात् आँखों से जितना इंगित हो पाता है उससे अधिक गणितीय भाषा से इंगित होना देखा गया है। गणितीय भाषा से अधिक गुणात्मक भाषाओं से परस्पर मानव में इंगित होना देखा गया है और गुणात्मक भाषा से तथा गणितात्मक भाषा से जितना इंगित हुआ है उससे अधिक और सम्पूर्णता कारणात्मक भाषा से इंगित होना पाया गया है। इंगित होने का तात्पर्य, प्रयोजन सहित वस्तु स्वरूप सर्वस्व को जानना-मानना और पहचानने से है इसलिए मानव भाषा कारण-गुण-गणितात्मक है।

रूप सहज अस्तित्व में, से आंशिक भाग आँखों से इंगित होता है। गणित के द्वारा सम्पूर्ण रूप और आंशिक गुण इंगित होता है, गुण का तात्पर्य प्रभाव सहित गति है। सम्पूर्ण गुण और स्वभाव गुणात्मक भाषा से इंगित होता है। कारणात्मक भाषा विधि से स्वभाव-धर्म इंगित होता है और ‘अस्तित्व समग्र’ इंगित होता है। इस विधि से मानव भाषा अपने आप सुस्पष्ट है।

इससे यह पता चलता है कि प्रकृति ही जड़-चैतन्य स्वरूप में है तथा जड़ प्रकृति ही चैतन्य प्रकृति में संक्रमित होता है। चैतन्य प्रकृति जब तक जीने की आशा से सीमित रहती है तब तक जीवनी क्रम के रूप में ही प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियों का आंशिक प्रयोग करते हुए जीवनी क्रम के परम्पराओं को बनाये रखने

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