शरीर को जीवन मानने के आधार पर शरीरोपयोगी यथा शरीर के लिए प्रिय, हितकारी वस्तुओं को चयन करने जाते हैं तब लाभापेक्षा होता ही है। इस विधि से जब प्रिय, हित, लाभकारी वस्तुओं को मानव चयन करता है, यह कार्य चित्रण तक सम्पादित होता है।
चयन के अनुरूप आस्वादन क्योंकि शरीर को ही जीवन मानने के आधार पर आस्वादन के अनुसार विश्लेषण, विश्लेषण के अनुसार शरीर सीमावर्ती और शरीरोपयोगी वस्तुओं के संबंध में विश्लेषण और उसी का चित्रण सम्पादित होना पाया गया। प्रिय, हित, लाभ सीमावर्ती तुलन, चिन्तन का वस्तु नहीं बनती क्योंकि ये सब रुचिमूलक होने के आधार पर पुन: यह सब आस्वादन या भोगमूलक ही होती है। सम्पूर्ण भोग विधि भी आस्वादन के अर्थ में समीचीन है। सभी आस्वादन पंच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। दूसरे शब्दों में सभी आस्वादन पंच ज्ञानेन्द्रियों-पंच कर्मेन्द्रियों में, से, के लिए होता है। इसी को मानव जाति का सम्पूर्ण कार्यक्रम स्वीकारना ही भ्रम का द्योतक है। इस सीमा के मानव सर्वशुभ रूपी दिशा से विमुख रहता ही है। फलस्वरूप अनगिनत प्रताड़नों से क्लेशित होना; दु:ख, शोकादि पीड़ाओं से पीड़ित होने के रूप में देखा गया है। यह सब भ्रम को ही सत्य मानने का फलन रहा। यथा मृगतृष्णा-मरीचिकावत् अथवा रज्जू-सर्पवत् पराभव का सूत्र बनता है। इसी क्रम में जीवन को जीवन और शरीर को शरीर समझना अति अनिवार्य है। हर मानव को यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता को यथावत् समझना अति अनिवार्य है। इसमें तीन ही मुद्दा प्रधान रूप में आते हैं - अस्तित्व, जीवन और मानवीयतापूर्ण आचरण। यही मानव में, से, के लिए मौलिक आचरण के रूप में पहचाना गया।
हर वस्तु को उसके आचरण के आधार पर मानव पहचानता है। इसी पहचान के आधार पर निर्वाह होना होता है। निर्वाह का ही फल-परिणाम होना पाया जाता है। यह सामान्यत: सबको ज्ञात है। सहअस्तित्व सहज विधि से हर अवस्था की वस्तुओं को उन-उन के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में जानना-मानना अति अनिवार्य स्थिति है इसी के आधार पर पहचानना संभव हो जाता है। सही पहचानना ही निर्वाह करना है और उसके फल में वांछित परिणाम निकलना स्वाभाविक है। बिना जाने-माने किसी चीज को पहचानने जाते हैं आधार विहीन होना पाया जाता है। समझ के करने में हर स्थितियाँ संतुष्टि का कारण बनती है। बिना समझे कुछ भी करते हैं चाहे वह आस्थावादी, प्रलोभनवादी या भयवादी हो वह सदा-सदा पराभव और प्रताड़ना का कारण ही बनता है। इस विधि से सम्पूर्ण भ्रम कार्य व्याख्यायित होता है। कितने भी पीढ़ी भ्रम को बारंबार दोहराते रहें भ्रम का परिणाम पीड़ा ही होना पाया जाता है। भ्रमित परिणाम से मानव संतुष्ट नहीं रह पाता।