में आता है, अध्ययन से स्पष्ट होता है। कल्पनाएँ जीवन सहज कार्य महिमा है। कल्पना में सम्पूर्ण अस्तित्व समाने की क्रिया स्पष्ट हुई। कल्पना का तात्पर्य अस्पष्ट आशा, विचार, इच्छा का ही गतिशीलता है। इस प्रकार मानव की कल्पना से स्पष्टीकरण की ओर ही जागृति चिन्हित हो पाता है।
अस्तित्व कैसा है इस तथ्य को ‘अस्तित्व एवं अस्तित्व में परमाणु का विकास’ में स्पष्ट किया जा चुका है। कितना है का उत्तर हर मानव के जागृति सहज विधि से उदय होता ही रहता है। सम्पूर्ण अस्तित्व मानव की आवश्यकता के अर्थ में समाहित नहीं होता। दूसरी भाषा में सम्पूर्ण अस्तित्व मानव सहज भाषा की सीमा में समाता नहीं है। इससे यह भी पता लगता है सम्पूर्ण अस्तित्व मानव की आवश्यकता से अधिक है ही। अस्तित्व में ही व्यापक और अनन्त इकाईयाँ अविभाज्य रूप में होना दिखाई पड़ता है, समझ में आता है। इसे देख पाना मानव जागृति क्रम सहज समीचीनता है। इस प्रकार कितना है का स्पष्टीकरण समझ में आता है। क्यों है का उत्तर इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण घटना स्वरूप ही सहअस्तित्व में होना स्पष्ट होती है। व्यापक वस्तु में ही अनन्त वस्तुओं की अविभाज्यता अनुस्यूत है। ऐसे सदा-सदा वर्तमान रूपी अस्तित्व क्यों वाला प्रश्न को भी मानव ही प्रस्तुत करता है। मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य इकाई है। वर्तमान में जो कुछ भी देखने-समझने को मिल रहा है इसको वर्तमान में प्रकाशित करना ही अस्तित्व सहज सार्थकता स्पष्ट होती है। अस्तित्व में जो कुछ भी है इसकी निरंतरता ही इसका प्रयोजन है। इस प्रकार तीनो प्रश्नों का उत्तर स्पष्ट हो जाता है।
‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ भी इसी तथ्य को इंगित करने के लिये तत्पर है। अनुभव अस्तित्व में ही होना पाया जाता है। अनुभव के पहले समझदारी जानने-मानने-पहचानने के रूप में होना पाया जाता है। यह सच्चाई का अध्ययनपूर्वक होने वाला अवधारणा, संस्कार है। इसके पूर्व रूप में विचार और चित्रण ही रहता है। यही श्रुति, स्मृति, शब्द और चित्रण है। शब्द और चित्रण के आधार पर कितने भी क्रियाकलापों को मानव संपादित करता है यह सब अस्थिरता के साथ ही जूझता हुआ देखा गया है अस्थिरता में भ्रम ही प्रधान कारण है। इसीलिये ही स्मरण और चित्रण के उपरान्त कहीं न कहीं अस्थिरता-अनिश्चयता को प्रकाशित करता ही है। इसी सीमा तक हम इस बीसवीं सदी के अंत तक झेलते आये हैं। स्थिरता की स्वीकृति बोध रूप में ही होना फलस्वरूप व्यवहार में न्याय-समाधान-सत्य प्रमाणित होना पाया जाता है। ऐसा बोध जानने-मानने-पहचानने का ही महिमा है। यह क्रिया जीवन में ही जागृति सहज विधि से होने वाली वांछित प्रक्रिया है।
अस्तित्व में अनुभव सत्ता में (व्यापक में) संपृक्त प्रकृति के रूप में ही देखा गया है। सत्ता में संपृक्त रहने के आधार पर ही क्रियाशीलता नियंत्रण, संतुलन, संरक्षण साम्य ऊर्जा स्रोत होना देखा गया है। इसीलिये