1.0×

मानव भ्रमित कार्य विधियों, कल्पना विधियों से हताश होता है तब भ्रम की पीड़ा अपने पराकाष्ठा में होता है। तभी भ्रम मुक्ति अथवा जागृति विधि का आवश्यकता निर्मित होती है। यह संक्रमण काल में प्रौढ़ और वृद्ध मानवों के साथ गुजरता हुआ स्थितियाँ है।

मानव में तीनों बन्धन की अलग-अलग स्थितियाँ स्पष्ट हो जाती है। इच्छा बन्धन की पराकाष्ठा में बन्धन की पीड़ा, कुण्ठा, प्रताड़ना के रूप में होना देखा गया है। यह मानव परंपरा सहज कार्य-प्रणाली में भ्रमित परंपराओं के रूप में घटित होने वाले परिणाम है। इसमें मुख्य रूप में वैचारिक और व्यवहारिक सामरस्यता की उपेक्षा, उसमें होने वाले विरोधाभास की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि चित्रण कार्य इच्छा बन्धन का सर्वोपरि अहमता के रूप में कार्य को मानव में प्रदर्शित होता है बीसवीं शताब्दी के अन्त तक आजीविका का आधार माना। यह सभी सफलता-विफलताएँ, भय, प्रलोभन, आस्था रूपी आदर्शो और आदर्श के केन्द्रों के रूप में होते आये। इस अवस्था में इस धरती के संपूर्ण मानव में, से केवल आस्थावादी में, से कुछ लोग (कम से कम) होना दिखाई पड़ते है। कुछ अधिक लोग प्रलोभन और आस्था विधि से ही अपनी सार्थकता को माना करते हैं। कुछ कम लोग ही केवल प्रलोभन, भय से प्रताड़ित रहते हैं, इसमें आशा बंधन प्रधान होना पाया गया है। आशा और विचार बंधनपूर्वक ही आस्था, प्रलोभन और भय से पीड़ित होना रहता है और केवल आस्था में सफलता को खोजने वाले लोग न्यूनतम रहते हैं इनका अंतिम लक्ष्य स्वांत: सुख ही रहता है। ये सब जब तक लोक सम्मान मिलता हुआ स्थिति में प्रसन्नता को और न मिलने की स्थिति में अप्रसन्न रहता हुआ देखने को मिलता है।

आशा बन्धन इन्द्रियों द्वारा सुखी होने के लिए दौड़ लगाने के लिये सभी क्रियाकलाप के रूप में गण्य है। विचार बन्धन कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय अपने विचार को श्रेष्ठ मानने की विधि से स्पष्ट होता है। इच्छा बन्धन, ज्यादा से ज्यादा रचना कार्य की श्रेष्ठता को स्पष्ट करने के क्रम में स्पष्ट होता है। यह भी चित्रण विधि से स्पष्ट होता है।

ऊपर स्पष्ट किये गये विश्लेषणों से भ्रम का स्वरूप और भ्रम का पीड़ा कैसे हो पाता है इन तथ्यों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। निर्भ्रमता और जागृति के संबंध में भी अनुभवमूलक प्रणाली और पद्धति से संबंधित सभी मुद्दों पर प्रकाश डाला है। इसी को आगे और स्पष्ट करने के लिये व्यवहारिक प्रमाणों में प्रमाणित करने योग्य संप्रेषणा प्रस्तुत है। अनुभवगामी विधि में न्याय, धर्म (समाधान) और सत्य साक्षात्कार एक साथ ही होना पाया जाता है। यह इस छोर से जुड़ा हुआ देखा गया है कि भ्रम से पीड़ित होने के साथ ही जीवन स्वीकृति सहज वस्तुओं की अति अनिवार्यता बन जाती है। इसी अनिवार्यतावश जीवन में इन्द्रिय लिप्सा से मुक्ति चाहने की आवश्यकता अपने पराकाष्ठा में बलवती हुआ रहता ही है। इसे योग-संयोग

Page 79 of 151
75 76 77 78 79 80 81 82 83