सर्वाधिक रूप में मानव में निहित अमानवीयता के भय से प्रताड़ित, पीड़ित, संघर्षरत होना दिखाई पड़ती है।
संघर्ष का मूल मुद्दा अधिक संग्रह, अधिक सुविधा और पद ही है। पद से सुविधा, सुविधा से पद तक अनुवर्तीयता को भले प्रकार से किशोर अवस्था तक की पीढ़ियों में प्रभावित होना इस शताब्दी में साक्षित हुआ है। संघर्ष का परिणाम उभय नाश या एक का अधिक, एक का कम नाश घटित होना देखा गया है। तीसरा कोई परिणाम संघर्ष से निकलता नहीं। एक का सुरक्षा, दूसरे का नाश या उभय सुरक्षा ये दोनों संघर्ष विधि से निकलता नहीं है। उल्लेखनीय यही है किसी के नाश से हम सम्पन्न हो जायेगें ऐसा सोचते हुए ही संघर्ष किया जाता है। यह संघर्ष शासन और उसके विद्रोही संगठनों के साथ, इतना ही नहीं परिवार-परिवार के साथ और व्यक्ति, व्यक्ति के साथ देखने का मिला। यह संघर्ष अथवा संघर्ष की पराकाष्ठा ही आज समाधान के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता है अथवा प्यास जगाता है। हर संघर्ष शांति की अपेक्षा में अथवा समाधान की अपेक्षा में ही आरंभ किया हुआ सुनने में मिलता है। उल्लेखनीय बात यही है संग्रह और सुविधा का तृप्ति बिन्दु होता नहीं। इसके लिए किया गया सभी संघर्ष व्यर्थ होना, पीड़ा का ही कारण होना पाया जाता है। अतएव संघर्ष ही बंधन की पराकाष्ठा का प्रकाशन है। समाधान और अनुभवमूलक विधि से किया गया सम्पूर्ण विचार, व्यवहार, कार्य, व्यवस्था और आचरण ही बन्धन मुक्ति का साक्ष्य और प्रमाण है। समाधान से ही समस्या की मुक्ति और प्रामाणिकताएं सदा-सदा के लिए छल-कपट, दंभ, पाखंड से मुक्ति है। इच्छा बन्धन जटिलतम रूप में मानव के कर्म स्वतंत्रता, कल्पनाशीलतावश विन्यासित हुआ है। विन्यासित होने का तात्पर्य भ्रमात्मक विचारपूर्वक छल, कपट, दंभ, पाखण्ड के रूप में मानव अपने को प्रस्तुत किया। यही आज की एक वीभत्सता का रूप है। इससे परिवर्तित होकर स्वतंत्रता, न्याय, समाधान और प्रामाणिकतापूर्ण अधिकार पाना ही अभीष्ट है। इसी तात्पर्यवश ‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ को विचारार्थ मानव के सम्मुख प्रस्तुत किया है।
न्याय का साक्षात्कार संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के रूप में होने की प्रक्रिया है। यही न्याय प्रदायी क्षमता का द्योतक है। संबंध अपने में (सभी संबंध) परस्पर पूरक होना एक शाश्वत् सिद्धांत है। इसकी पुष्टि सहअस्तित्व, सहअस्तित्व में पूरकता सर्वमानव वांछित, अपेक्षित, वैभव है। ऐसी क्रियाएँ अर्थात् पूरक क्रियाएँ पुष्टिकारी, संरक्षणकारी, अभ्युदयकारी और जागृतिकारी प्रयोजनों के रूप में दिखाई पड़ती है। पुष्टिकारी कार्यों को शरीर पोषण, विचार पोषण, कार्य पोषण, आचरण पोषण, ज्ञान और दर्शन पोषण के रूप में देखने को मिलता है। यह पोषण विभिन्न संबंधों में घटित होता हुआ प्रत्येक व्यक्ति अनुभव कर सकता है। जैसा मातृ संबंध में शरीर पोषण, शील संरक्षण; पितृ संबंध में शील, आचरण, शरीर संरक्षण;