मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का सार्थक स्वरूप है। अस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से ही अनुभव बल से जीने की कला, जीने की कला से अनुभव बल पुष्ट होना पाया जाता है। ऐसी पुष्टि ही मानव परंपरा में उत्सव है। हर व्यक्ति उत्सवित रहना चाहता है। जागृति का फलन ही उत्सव का स्रोत है।
जागृतिपूर्वक ही हर व्यक्ति प्रमाणित होना पाया जाता है। जागृति को अनुभवमूलक अभिव्यक्ति क्रम में जागृति और जागृतिपूर्णता स्पष्ट होता है। मानव व्यवस्था में जागृत होने से व्यवस्था के रूप में जीना प्रमाणित हो पाता है। इसी पद को अर्थात् जागृत पद क्रियापूर्णता है। क्रियापूर्णता का तात्पर्य भी मानवीयतापूर्ण विधि से करने योग्य सभी कार्य सम्पन्न होने की विधि से है। यह कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित विधि से होना पाया गया है। यही मानव सहज जागृति का विस्तार का भी द्योतक है। इन्हीं आधारों के महिमा को क्रियापूर्णता से इंगित किया है। न्याय और व्यवस्था में जीना ही इसका सार्थकता है। फलस्वरूप व्यवस्था की सार्वभौमता मानव सहज समाज में अखण्डता सूत्रित, व्याख्यायित, वैभवित हो पाती है। ऐसे अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के स्रोत रूप में कार्य करने वाला मानव, देव मानव, दिव्य मानव है। यह विचार बन्धन से मुक्ति का स्वरूप है। इनमें से दिव्य मानव आचरणपूर्णता को प्रमाणित करना देखा गया है। इसी पद को जागृतिपूर्णता नाम दिया है। इनके कार्यरूप को अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का स्रोत सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचरण में प्रमाण के रूप में होना पाया जाता है। जागृतिपूर्णता ही प्रमाण का आधार है। हर व्यक्ति प्रमाण होना चाहता है। इसीलिये मानव परंपरा में दिव्य मानवीयता वांछित व आवश्यक है। इस अवस्था में बन्धन मुक्ति प्रमाण होना पाया जाता है। यही बन्धन मुक्ति का सार संक्षेप स्वरूप है। मुक्ति को आचरण में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। व्यवहार कार्य में ही साक्षित होना पड़ता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही प्रकाशमान होने के कारण मानवीयता, देवमानवीयता, दिव्यमानवीयता भी प्रकाशित होना स्वाभाविक है।
बंधन मुक्ति क्रम, मुक्ति (मोक्ष) और अभ्यास
सहअस्तित्व में अनुभव सहज प्रयोजनों को प्रमाणित अर्थात् जागृति क्रम में ही बन्धन मुक्ति होना दृष्टव्य है। मानव इकाई (सम्पूर्ण मानव इकाई) अपने आरंभिक काल से ही पहचानने-निर्वाह करने के क्रम को जारी रखा है। फलस्वरूप नस्ल, रंग, जाति, भाषा, देश, काल, दिशा, वस्तु उपयोग (उपभोग के लिये), अधिक, कम को पहचानने के लिये प्रयत्न किया ही है। यह सभी प्रक्रियाएँ जागृति क्रम में प्रमाणित होते हुए जागृति प्रमाणित होना अभी भी प्रतीक्षित है ही। अभी तक विविध प्रकार से स्थापित सामुदायिक परंपराएं अपने श्रेष्ठता को अहमता के रूप में (भ्रमित निर्णय के रूप में) पालता हुआ इस वर्तमान में देखने को मिल रहा है। इसमें मूलतः साम्य ध्रुव बिन्दु को मानव जाति अर्थात् सम्पूर्ण सामुदायिक परंपराएँ पहचानने