कला और समग्र व्यवस्था में भागीदारी स्वयं-स्फूर्त होना स्पष्ट हुआ है। ये सभी तथ्य अस्तित्व में अनुभव होने का ही फलन है। कोई भी व्यक्ति अस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित कर सकता है। इन सम्पूर्ण तथ्यों का अनुभवगामी विधि से अध्ययन करने और उसमें पारंगत होने के आधार पर सर्वतोमुखी समाधान जीवन सहज विधि से स्वीकृत रहता ही है। ऐसे अनुभव स्वीकृत होने के क्रम में न्याय, साक्षात्कार पूर्वक स्वीकृत रहता ही है। न्याय और समाधान की सार्थकता सहज गरिमा और महिमा ही अभिव्यक्ति क्रम में अनुभवपूर्ण होना अर्थात् अनुभव से परिपूर्ण होना पाया गया है। अनुभव, बोध, संकल्प, चिन्तन सहज विधि से किया गया चित्रण, तुलन, विश्लेषण, आस्वादन और चयन जीवन जागृति के अनन्तर सम्पन्न होने वाले कार्यकलाप है। जागृति ही भ्रम मुक्ति का प्रमाण है और लक्षण भी। प्रमाण का लक्षण प्रमाणित होने के लिये प्रेरक होना ही वर्तमान है। इन तथ्यों प्रक्रियाओं के आधार पर हर मानव अपने अर्हता को परीक्षण निरीक्षण पूर्वक मूल्यांकित कर पाता है। फलस्वरूप अनुभवमूलक विधि प्रक्रिया और फलन की संगीतमयता सहित हर मानव परिवार मानव के रूप में वैभवित होना संभव हो जाता है। इसकी आवश्यकता, अपेक्षा सब में देखने को मिलता है और संभावना सर्व समीचीन है। अस्तु, मानव अनुभवमूलक विधि से जीने की कला पूर्वक अनुभवों को पुष्ट करना चाहता है। यह अस्तित्व में अनुभवमूलक प्रणाली, पद्धति और नीतिपूर्वक सार्थक-सफल होना देखा गया है।
मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है।
अस्तित्व में अनुभव होता है।
1. जीवन अस्तित्व में अनुभूत होता है।
2. जीवन और शरीर के संयुक्त साकार रूप में हर मानव परंपरा के रूप में विद्यमान है।
3. अस्तित्व में मानव अविभाज्य है।
4. सम्पूर्ण अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। यही चार अवस्था में वर्तमान है।
5. इसी धरती पर चारों अवस्थाएँ प्रमाणित है।
6. इन चार अवस्थाओं में से मानव ही अनुभवमूलक विधि से विचार शैली और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने के रूप में जीने की कला को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने योग्य इकाई है।