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अस्तित्व का अध्ययन किये नहीं और कहते हैं कि हम इस पर शासन करेंगे। इस ढंग से मानव परंपरा बोझ तले दब गई है। अब दो ही विकल्प है या तो इससे निकला जाये या दबकर मरा जाये। नियति ही अपने को संतुलित करती है यह भी हमें पढ़ाया जाता है। मानव जाति जितना अति कर सकता है करने के बाद प्रकृति ऐसी परिस्थिति पैदा करेगी कि मानव इस धरती पर रहेगा ही नहीं। पर्यावरण की बात पर हम हल्ला-गुल्ला सुनते ही है कितना आदमी बचेगा कितना मरेगा इसके लिये उपाय सोचा जा रहा है। कुछ देश वाले सोचते हैं हमारा देश बच जाये, कुछ धर्म वाले सोचते हैं कि हमारे धर्म वाले बच जायें। बचाने वाला वही है जिसे रहस्यमय ईश्वर, परमात्मा, देवी-देवता, अवतार, देवदूत आदि से काल्पनिक आश्वासन उनको मिलता है ऐसा किसी एक का नाम लेते हैं। उसमें कुछ मजहब की बात रहती है। बाकी का अंत होने वाला है। यह सब कहकर कहाँ जाना चाहते हैं? क्या होगा ऐसा सोचने से? इस मुद्दे पर हमारा सोचना यह है कि धर्म और राज्य, शिक्षा के नाम पर सभी भटक चुके हैं। अच्छी तरह से। धर्म गद्दी में धर्म की कोई सार्वभौमता नहीं है। धर्मगद्दी के नाम पर जितने भी धर्म हैं उनमें कोई सार्वभौम धर्म का आकार नहीं है। कोई शिक्षा नहीं, कोई प्रमाण नहें। कहाँ से धर्म को लायें?

राज्य गद्दी में राज्य की कोई अवधारणा सार्वभौम तो नहीं है। हमें राज्य को बचाने के लिये काम करना है। क्या करेंगे? संघर्ष करेंगे। संघर्ष का कुल मसाला है विद्रोह-द्रोह, शोषण और युद्ध। ये चार मसाला कौन बनाता है। प्रकृति या मानव। इसको देखा गया, अध्ययन किया गया तो पता लगा कि यह मसाला मानव ही बनाता है, भ्रमवश बनाता है। दिग्गज संस्था दो ही है - धर्मगद्दी, राज्यगद्दी। सबसे शक्तिमान सारा ताकतवार, सारा साधन जिनके पास है ये दोनों गद्दी है। ये दोनों गद्दी इस तरह से रिक्त हो गई है। व्यापार गद्दी का पूछना ही नहीं है। वह पहले से ही शोषण के लिये तैयार बैठी है। शिक्षा गद्दी से पूछा गया उनके पास कोई मार्गदर्शन की, दिशा दर्शन की चिन्हित लक्ष्य को पहचानने की कोई व्यवस्था नहीं है। अब बोलिये, सामान्य आदमी क्या करे? ये जो चार परंपरायें हैं (धर्म, राज्य, व्यापार, शिक्षा) इनसे कोई रास्ता मिलने वाला नहीं। रास्ता खोजा जाये, बनाया जाये यही साहसिकता है। वह रास्ता समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी रूप में सहज होगा। मारपीट के रास्ते से कोई लक्ष्य मिलता नहीं। मारपीट से आवश्यकतायें पूरी होती नहीं है। इसके बाद भी इसकी परंपरा बनाकर रखे हैं। यह भी बहुत बड़ा भ्रम हो गया कि नहीं। अब बुद्धि की बात यही है कि हम समझदार हों। समझदारी की जाँच स्वयं स्वीकृत रूप में विकसित चेतना सहज अध्ययन से है। मुझको जाँचकर आप समझदार हो नहीं सकते। आप स्वयं अपने को जाँचेगें तब आप समझदार होंगे। मैं संसार को जाँच-जाँच कर तीस वर्ष सिर कूट लिया। हमको कहीं भी समझदारी का कोई अंश नहीं मिला। जब हम पचीस वर्ष प्रयत्न कर अपने को जाँचा तब हमें समझदारी

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