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है। इसी के साथ-साथ और एक नित्य प्रमाण समझ में आता है सत्ता हर परस्परता में पारदर्शी है क्योंकि हर ससम्मुखता में किसी न किसी सीमित वस्तुओं (इकाईयों) को पाया जाता है। सीमित वस्तुओं का ही प्रतिबिम्ब होता है। सीमित वस्तुओं की परस्परता के मध्य व्यापक रूप में वर्तमान सत्ता दिखाई पड़ती है। यह स्थिति सर्वत्र, सर्वकाल में सभी मानव के नजरों में आती है। इस तथ्य के आधार पर सत्ता पारदर्शी होना, देखने को मिलता है। क्योंकि सत्तामयता हर परस्परता के मध्य में होता ही है तभी परस्परता में प्रतिबिम्बन होना प्रमाणित होता है। ऐसे पारदर्शी सत्ता में घिरा, डूबा होने का महिमा के साथ-साथ हर सीमित वस्तुएँ ऊर्जा सम्पन्न रहना, उन-उन की क्रियाशीलता के आधार पर प्रमाणित होता है। इससे यह भी पता लगता है - सत्ता में ही हर सीमित वस्तुएँ भीगी हुई है। इस प्रकार हर वस्तु अर्थात् हर सीमित वस्तु सत्ता में ही नियंत्रित, क्रियाशील, संरक्षित रहना भी पता लगता है क्योंकि अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है। अस्तु, प्रतिबिम्बन का मूल वस्तु रूप है ही। ऐसे रूपों के परस्परता के मध्य में स्थित साम्य ऊर्जा, सत्ता पारदर्शी होता है।

आँखों से देखने के क्रम में सारे सानूकुलताएँ अस्तित्व सहज रूप में समीचीन रहते हुए आकार, आयतन का आंशिक भाग आँखों के सम्मुख प्रतिबिम्बित होना स्पष्ट हो चुकी है। आँखों पर प्रतिबिम्बित आकार से अधिक आयतन, आकार और आयतन से अधिक घन रहता ही है। इस विधि से जो हम आँखों से देखते है उसकी सम्पूर्णता आँखों में आती नहीं है। यह रूप के संबंध में जो तीन आयाम बतायी गई है उसका प्रतिबिंबन और आँखों की क्षमता के संबंध में मूल्यांकित हुई। हर रूप के साथ गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रहना स्पष्ट किया जा चुका है। यह भी साथ-साथ हर व्यक्ति में किसी न किसी अंश में गुण, स्वभाव, धर्म को समझने की आवश्यकता-अरमान रहता है। इस विधि से यह स्पष्ट हो गया जितना मानव समझ सकता है वह आँखों में आता नहीं। हर वस्तु आँखों पर होने वाले प्रतिबिम्बन से अधिक है। यही कल्पनाशीलता, तर्क, प्रयोग, अध्ययन और अनुभव का मुद्दा है। अब यह बात सुस्पष्ट हो गई कि देखने का परिभाषा, आशय और सार्थकता समझना ही है, समझा हुआ को समझाना ही है। हर समझ अनुभव की साक्षी में ही स्वीकृत होता है। हर समझ अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित हो जाता है। समझने का जो महत्वपूर्ण पात्रता है और अनुभव योग्य क्षमता सम्पन्नता ही है, इन दोनों महत्वपूर्ण क्रिया के आधार पर अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होने के आधार पर दृष्टा पद प्रतिष्ठा हर व्यक्ति में, से, के लिए जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना नित्य समीचीन है।

मानव के सर्वेक्षण से यह भी पता लगता है कि जीवन क्रिया होते हुए भी कल्पना, विचार, इच्छाओं से तृप्ति पाना संभव नहीं होता है। इन तीनों का सम्मिलित योजना-कार्य योजनाओं को कितने भी विधाओं में प्रयोग

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