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किया, इससे किसी एक या एक से अधिक मानव को जीवनापेक्षा व मानवापेक्षा सहज उपलब्धियाँ होना साक्षित नहीं हो पायी। आशा, विचार, इच्छाओं के संयुक्त योजनाओं को मानव में से कोई-कोई विविध आयामों में प्रयोग किया। प्रधानत: युद्ध विधा में, शासन विधा में, व्यापार विधा, शिक्षा विधा में प्रयोग किया गया मानव सहज अपेक्षा द्वय इन सभी कृत्यों से प्रमाणित नहीं हो पायी। मानव इतिहास दस्तावेजों के रूप में जो कुछ भी रखा है, वह सब इसका गवाही है। अतएव ‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ इस आशय की पुष्टि अध्ययन सामान्य योजनाओं का अवधारणा मानव परंपरा में प्रस्थापित करने के लिये प्रस्तुत हुआ है। यह दृष्टा पद की ही महिमा है। इसकी गवाही यही है मानव परंपरा में ही विगत की समीक्षा, वर्तमान में व्यवस्था, भविष्य में, से, के लिये व्यवस्थावादी कार्य-योजना मानव परंपरा को सफल बनाने का सुदृढ़ एवं सर्व मानव स्वीकार्य योग्य प्रस्ताव है। सहअस्तित्व में अनुभव के आधार पर ही यह सम्पूर्ण प्रस्तुति है।

वर्णित ऐतिहासिक विफलताएँ अग्रिम अनुसंधान के लिये आधार होना स्वाभाविक है। इस क्रम में इस तथ्य को अनुभव किया जा चुका है कि आँखों से अधिक कल्पनाशीलताएँ हर मानव में विद्यमान है। गणित भी कल्पनाशीलता का ही प्रकाशन है। संख्या के रूप में हर घटना या रूप और गुणों को बताने के लिये प्रयत्न हुआ। गुण ही गति के रूप में होना देखा गया है। गणितीय क्रियाकलाप भी मानव भाषा में गण्य होना पाया जाता है। सर्व मानव में गणना कार्य प्रकट होते ही आया है। ऐसे गणना कार्य को विधिवत् प्रयोग करने के आधार पर रूप सम्बन्धी तीनों आयाम आकार, आयतन, घन को समझने-समझाने का कार्य सम्पन्न होता है। इसी के साथ-साथ गति सम्बन्धी संप्रेषणा भी गणना विधि से लाने का प्रयास हुआ। मध्यस्थ गति गणितीय भाषा में संप्रेषित नहीं हो पायी है। सम-विषमात्मक गतियों को दूरी बढ़ने-दूरी घटने, दबाव और प्रवाह बढ़ने-घटने के साथ परिणामों का आंकलन सहित अध्ययन करने का प्रयास विविध प्रकार से किया गया है। ये दोनों सम-विषम गतियाँ आवेश के रूप में ही गण्य होते हैं जबकि हर वस्तु, हर इकाई, उसके मूल में जो परमाणु है वह अपने स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही उनके त्व सहित व्यवस्था होना पाया जाता है। जो कुछ भी अस्तित्व में त्व सहित व्यवस्था के रूप में व्यक्त है वह सब मध्यस्थ गति के अनुरूप ही कार्यरत होना देखा गया। मानव में इसका कार्य रूप, कार्य प्रतिष्ठा जागृति मूलक विधि से ही स्पष्ट होना देखा गया है। इसका प्रमाण न्याय, धर्म, सत्य मूलक अभिव्यक्ति के रूप में ही प्रमाणित होता है। इनमें से कम से कम न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति क्रम में ही मानव त्व को प्रकाशित कर पाता है। न्याय साक्षात्कार के उपरान्त स्वाभाविक रूप में धर्म और सत्य में जागृत होता है अर्थात् प्रमाणित होता है। इसलिये मानवीयतापूर्ण मानव चेतना पूर्ण पद में संक्रमित होना अति अनिवार्य है। इसी आवश्यकता के आधार पर शिक्षा में प्रावधानित वस्तु जागृति पूर्ण रहना आवश्यक है। यही परंपरा का परिवर्तन कार्य है। शिक्षापूर्वक ही सर्वमानव के जागृत होने का मार्ग प्रशस्त होता है। अतएव मध्यस्थ गति मानव का स्वभाव गति के रूप

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