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प्रकाशन ही है। यह सब भ्रमित विधि होने के कारण जिसके गवाही के रूप में युद्ध ही प्रधान विकास का आधार मानने के फलस्वरूप भ्रम का साक्ष्य सुस्पष्ट हो जाता है। शांतिवादी कल्पनाएँ जितने भी हो पायी, व्यक्तिवादी होने के कारण परिवार, समाज और व्यवस्था का आधार नहीं हो पाया। भोगवादी परिकल्पना भी व्यक्तिवादी हुई। यह सर्वविदित है विरक्तिवाद भी एकान्तवाद स्वान्तः सुख रूप में है। इन सबका सार-संक्षेप संघर्ष ही पीढ़ी से पीढ़ी को हाथ लगी। इस दशक में सर्वाधिक लोग संघर्षरत भी हुए। ऐसे अनेकानेक संगठन पूरे धरती पर तैयार हो चुके हैं। कहीं भी राजगद्दी पर कोई बैठा है तो उसका विद्रोही संगठन भी रहा। यह सब इसी की गवाही में है कि हम सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज विधि को पाये नहीं है पाने की इच्छा आंशिक रूप में बना ही रहा। तीसरा मानवापेछा और जीवनापेछा किसी परंपरा में सार्थक नहीं हो पायी इसी कारणवश अनुभवमूलक शिक्षा-संस्कार, व्यवस्था और संविधान को सुस्पष्ट करना एक नियति सहज आवश्यकता रही है।

भ्रमवश शरीर ही समझने वाला वस्तु है ऐसा कल्पना करते हुए शरीर रचना के आधार पर विकास और जागृति को केन्द्रित करने का कोशिश किया किन्तु मानव का विश्लेषण न हो पाने से अभी भी इसी दिशा में अनुसंधान और उसके प्रोत्साहन को जारी रखा गया है। जबकि शरीर को जीवन ही जीवन्त बनाए रखते हुए समृद्धिपूर्ण मेधस सम्पन्न मानव शरीर के माध्यम से मानव परंपरा में जीवन ही अपने जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में सदा-सदा प्रयास करते ही रहा। परम्पराएँ भ्रमित रहने के कारण मानव सहज जागृति की इच्छाएँ हर शरीर यात्रा में दिशा विहीनता और मार्ग विहीन होने का कुण्ठा सदा बाधा करता ही रहा। इस क्रम में ही जागृति के लिये आवश्यकीय अनुसंधान और उसे परम्परा में स्थापित करना आवश्यक हो गया।

जीवन का स्वरूप, कार्य और शरीर के साथ कार्य विधि इस मुद्दे पर विश्लेषण निष्कर्ष निकालने के विधि को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसमें मूलतः विकास के मंजिल में जीवन ही जागृति क्रम में कल्पनाशीलता, विश्लेषण कार्य, चित्रण, चिन्तन सहज मौलिकता, बोध सम्पदा और अनुभव सहज वैभव को हर व्यक्ति अनुभव करने की आवश्यकता बनती है। जीवन में उक्त सभी क्रियाएँ कम से कम कल्पनाशीलता उससे अधिक विश्लेषण से मानव परंपराएँ व्यंजित होता देखा गया है। ऐसे विश्लेषणों को अधिकतर चित्रित करने का कोशिश किया गया है। जबकि चिन्तन से ही मानव अपेक्षा और जीवन अपेक्षा स्पष्ट हुआ। बोध और अनुभव पूर्णतया जीवनापेक्षा और मानवापेक्षा को सार्थक बनाने के कार्यक्रम से सम्पन्न हो जाता है। इसे सार्थक बनाने के क्रम में ही सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज रचना विधि-यह दोनों सुस्पष्ट हो जाता है। इसलिये मानव परंपरा में अनुभवमूलक कार्य परंपरा स्थापित होना सहज है क्योंकि मानवापेक्षा की

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