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में मानवीयता को प्रमाणित करने के रूप में ही संभव होता है। फलस्वरूप समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रामाणिकता और स्वायत्तता के साथ दिव्य मानव प्रतिष्ठा शिक्षा-कार्य और प्रमाण वैभवित रहता है। यही मानव परंपरा का सर्वांग सुन्दर वैभव है। इसे अनुभवमूलक विधि से ही सम्पन्न करना संभव है। यही दृष्टा पद परम्परा का भी प्रमाण है।

स्वभाव गति सदा-सदा ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में दृष्टव्य है। स्वभाव गति का तात्पर्य इस बात को भी इंगित करता है कि स्वभाव-धर्म के अनुरूप गति। यही हरेक इकाई में अन्तर सामरस्यता का भी द्योतक है। फलस्वरूप परस्परता में व्यवस्था प्रमाणित होना सहज है। मानव का स्वभाव मानवीयता और उसमें परम श्रेष्ठता के आधार पर धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा पूर्ण कार्य-व्यवहार, विचार व अनुभव ही है। यही प्रतिष्ठा मुख्य रूप से दृष्टा पद का द्योतक है। दृष्टा पद परिपूर्ण समझदारी का ही अभिव्यक्ति संप्रेषणा व प्रकाशन है। ऐसी समझदारी का स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान है। यही दृष्टा पद जागृति का सम्पूर्ण अधिकार स्वरूप भी है। इस प्रकार सम्पूर्ण समझदारी का अधिकार सम्पन्न दृष्टा होना देखा गया है। इसी समझदारी में से जीवन ज्ञान के साथ निष्ठा, अस्तित्व दर्शन के साथ निश्चयता और मानवीयतापूर्ण आचरण की अभिव्यक्ति में दृढ़ता पूर्वक व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित होना सहज है। इस विधि से हर मानव दृष्टा, कर्ता और भोक्ता होना पाया जाता है।

आवर्तनशीलता जीवन सहज अक्षय शक्ति-अक्षय बल का ही महिमा है। इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक जितनी भी परंपराएं स्थापित हुई-पनपी है जिनको हम आस्थावादी और विज्ञान परंपरा कह सकते है। उक्त दोनों से जो कुछ भी कर पाये हैं वह सब कल्पनाशीलता-कर्मस्वतंत्रता चित्रण, स्मरण और भाषाओं के संयोग से व्यक्त हुआ है। इस दशक तक इस धरती पर कहीं भी अनुभवमूलक परंपरा स्थापित नहीं हो पायी है। उसके योग्य विश्व दृष्टिकोण ही उदय नहीं हुआ। अनुभवमूलक प्रणाली की आवश्यकता तब आवश्यक हो गया जब मानव जाति धरती का सर्वाधिक शोषण किया। जैसे वन खनिज अनानुपाती विधि से शोषण किया। जिसके प्रौद्योगिकी परिणामों में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती गई। कुछ मेधावियों को इसकी विभीषिकाएं कल्पना में आने लगी तब अनुभवमूलक ज्ञान दर्शन आचरण की आवश्यकता निर्मित हुई। इसी आवश्यकता के आधार पर अनुसंधान सम्पन्न हुआ। इसमें मुख्य मुद्दा अनुभवों को संप्रेषित करना हुआ। इसका सिद्धान्त यही है मानव में, से, के लिये भाषा से कल्पना, कल्पना से चिन्तन, चिन्तन से अनुभव, अनुभव से प्रमाण विस्तार और स्पष्ट अभिव्यक्ति होना देखा गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाषा, कल्पना, चित्रण यह दृष्टा पद का आधार नहीं हो पाई। जबकि अभी तक जो भी अभिव्यक्तियाँ हुई वह इतने तक ही हुई। यह आशा, विचार, इच्छा बन्धन का प्रकारान्तर से किया गया

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