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जागृत जीवन व जागृतिपूर्ण जीवन ही अपने कार्य व्यवहार, विचार और प्रयोगों को प्रमाणित करना ही जीवन दृष्टा पद प्रतिष्ठा मानव जागृति सहजता में होने का प्रमाण है। जीवन सहज अनुभव बल के आधार पर जीवन के सम्पूर्ण क्रियाएं अभिभूत होने के फलस्वरूप यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता का स्वीकृति होना व उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन सहज होना पाया जाता है। सम्पूर्ण सत्य स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में ज्ञानगम्य विधि से दृश्यमान होना पाया गया है। क्रम से सहअस्तित्व में ही दिशा, काल, देश, रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहज अध्ययन चेतना विकास मूल्य शिक्षा विधि से बोध अनुभव ही है। यह हर जागृत मानव के समझ में होता ही है। मानवीयता पूर्ण व्यवहार सहज विधि से अर्थात् मानवीयतापूर्ण आचरण सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने से इसी स्थिति में, इसी गति में हर व्यक्ति दृष्टापद अनुभव समाधान का प्रमाण प्रस्तुत करना सुगम, सार्थक होना समीचीन रहता ही है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर मानव दृष्टा होना सहअस्तित्व में अनुभव है, प्रमाणित होता है।

पूर्वावर्ती विचार में रहस्यमयी ईश्वर केन्द्रित विचार के अनुसार ईश्वर ही कर्ता-भोक्ता होना भाषा के रूप में बताते रहे। इसी के आधार पर ब्रह्म, आत्मा या ईश्वर सबका दृष्टा होना बताने भरपूर प्रयास किये। यह मुद्दा रहस्य होने के आधार पर अभी तक वाद-विवाद में उलझा ही हुआ है। जबकि सहअस्तित्ववाद जीवन ही मानव परंपरा में दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहित कर्ता व भोक्ता के रूप में सफल होना देखा गया है। जागृति का प्रमाण केवल मानव परंपरा में ही होता है। जितने भी विधा से सहअस्तित्व, जीवन और मानवीयतापूर्ण आचरण संगत विधि से किया गया तर्क से, विश्लेषण से, किसी भी दो ध्रुवों के बीच त्व सहित व्यवस्था सहज कार्य प्रणाली से, जीवनापेक्षा अर्थात् जीवन मूल्य और मानवापेक्षा अर्थात् मानव सहज लक्ष्य के आधार पर और सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज क्रम को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के आशयों से अवधारणाएँ सहज रूप में ही जीवन में स्वीकार हो जाता है। इस क्रम में इस तथ्य का उद्घाटन चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार विधि से होता है जीवन ही सार्थकता के लिये जागृत होता है। सार्थकता में जीना ही भोगना है। सार्थकता के लिये ही जागृतिपूर्ण विधि से सभी कार्य व्यवहार करता है। जागृति ही दृष्टा पद सहज प्रमाण है। करना ही कर्ता पद है और जीवनापेक्षा और मानवापेक्षा को भूरि-भूरि विधि से जीना ही भोक्ता पद है। शरीर केवल करने के क्रम में एक साधन के रूप में उपयोगी होना देखा गया है। अध्ययन क्रम में भी सार्थक माध्यम होना देखा गया। अध्ययन-अध्यापन करना भी कर्त्ता के संज्ञा में ही आता है। दृष्टा पद में पूर्णतया जीवन ही जागृति के स्वरूप में प्रमाणित होता है। यह प्रमाण जान लिया हूँ, मान लिया हूँ, प्रमाणित कर सकता हूँ के रूप में स्थिति के रूप में अध्ययन का प्रयोजन होता है। अर्थात् हर व्यक्ति में जागृति स्थिति में होता है, भोगने का जहाँ तक मुद्दा है, मानवापेक्षा सहज समाधान समृद्धि को भोगते समय में सम्पूर्ण भौतिक-रासायनिक वस्तुओं का शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति के अर्थ में

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