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है। यह महिमा अस्तित्व कैसा है स्पष्टतया समझने के उपरान्त सफल हो जाता है और सफल होना देखा गया है।

अस्तित्व सम्पूर्ण सत्ता में संपृक्त सहअस्तित्व होने के रूप में अपने वैभव को चारों अवस्था में प्रकाशित किया है। यही वर्तमान का मतलब है। जीवन का स्वरूप, स्वीकृति और उसका अनुभव प्रतिष्ठा ही जीवन ज्ञान का तात्पर्य है। अस्तित्व सहज स्वरूप जैसा है इसका स्वीकृति और उसमें अनुभव स्वयं में से स्फूर्त प्रवृत्त सहअस्तित्व दर्शन का तात्पर्य है। जीवन ज्ञान सहअस्तित्व सहज के प्रकाश में ही अस्तित्व दर्शन सबको सुलभ होता है। इसलिये जीवन ज्ञान पर बल दिया जाता है। विद्या का तात्पर्य ही ज्ञान है। यहाँ इस तथ्य का भी स्मरण रहना आवश्यक है - जिन बातों को विद्या अथवा ज्ञान आदिकाल से कहते आ रहे हैं वह कल्पना क्षेत्र में ही सीमित रह गया। इसका साक्ष्य यही है जिसको ज्ञान, आत्मा, देवता कहते हुए सम्पूर्ण साधना, उपासना, अर्चना का आधार मान लिया गया है। वह सब मन, बुद्धि का गोचर नहीं है। मन, बुद्धि को जड़ क्रिया मानते हुए ज्ञान चेतना इनके पहुँच से बाहर है ऐसे ही उद्बोधन करते आये। इसके बावजूद बहुत सारे किताब इन्हीं मुद्दे अथवा नाम पर लिखा गया है। उल्लेखनीय तथ्य यही है कि जीवन ज्ञान - जीवन में, से, के लिये ही होता है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान सहअस्तित्व में, से, के लिये ही होता है। इन दोनों विधाओं का दृष्टा जीवन ही होना पाया जाता है फलस्वरूप मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान विधि से दृष्टा पद की महिमा स्पष्ट है। इस विधि से जीवन ज्ञान अर्थात् देखने समझने वाला, दिखने वाला भी जीवन सहित होना स्पष्ट हुआ। देखने वाला जीवन, दिखने वाला सहअस्तित्व यह अस्तित्व दर्शन के रूप में स्पष्ट हुआ। जीवन सहअस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान होने के आधार पर जीवन का अस्तित्व भी सहज होना पाया जाता है।

प्रमाणों के मुद्दों पर अध्यात्मवाद सर्वप्रथम शब्द को प्रमाण मान लिया गया। तदनन्तर, पुनर्विचार पूर्वक आप्त वाक्यों को प्रमाण माना गया। तीसरा प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान को प्रमाण माना गया। ये सभी अर्थात् तीनों प्रकार के प्रमाणों के आधार पर अध्ययनगम्य होने वाले तथ्य मानव परंपरा में शामिल नहीं हो पाये। इसी घटनावश इसकी भी समीक्षा यही हो पाती है यह सब कल्पना का उपज है। शब्द को प्रमाण समझ कर कोई यथार्थ वस्तु लाभ होता नहीं। कोई शब्द यथार्थ वस्तु का नाम हो सकता है। वस्तु को पहचानने के उपरान्त ही नाम का प्रयोग सार्थक होना पाया गया है। इसी विधि से शब्द प्रमाण का आशय निरर्थक होता है। “आप्त वाक्यं प्रामाण्यम्।” आप्त वाक्यों के अनुसार कोई सच्चाई निर्देशित होता हो उसे मान लेने में कोई विपदा नहीं है। जबकि चार महावाक्य के कौन से चार महावाक्य रूप में जो कुछ भी नाम और शब्द के रूप में सुनने में मिलता है उससे इंगित वस्तु अभी तक अध्ययन परंपरा में आया नहीं है।

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