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स्थित नहीं रहता है। यह सब जब स्पष्ट हो जाता है तब पुनः यह प्रश्न हो सकता है शरीर की आवश्यकता ही क्यों? जिसका अक्षुण्ण उत्तर यही है कि मानव परंपरा में जीवन जागृति और उसकी प्रामाणिकता को प्रमाणित करना है। ऐसी महिमा सम्पन्न उद्देश्य पूर्ति क्रम में मानव अपेक्षा, जीवन अपेक्षा सार्थक हो जाता है। मानव अपेक्षाओं का संपूर्ति, परिपूर्ति, आपूर्ति क्रम में न्याय और नियम, समाधान प्रमाणित हो जाता है। वह भी चिन्हित रूप में प्रमाणित हो जाता है। हर जीवन का ही कार्य वैभव और फलन है। इसका सिद्धान्त यही है कि अधिक शक्ति और बल, कम शक्ति और बल सम्पन्न माध्यम के द्वारा प्रकाशित होता है। जीवन अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्न इकाई है। प्राण कोषाओं का शक्ति और बल उसके रचना के आधार पर सीमित रहता ही है। क्योंकि हर रचना का विरचना क्रम जुड़ा ही रहता है। इस आधार पर इस धरती पर जितने भी प्राण कोशाओं की रचना है शीघ्र परिवर्ती है, भौतिक रचनाएँ दीर्घ परिवर्ती है। इसीलिये मानव शरीर प्राण कोशाओं से रचित रहने के लिये इसमें परिवर्ती कार्य घटना समीचीन रहता ही है। इस प्रकार शरीर बल और शक्ति अपने व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होते हुए सीमित और जड़ कोटि में गण्य होना पाया जाता है। रचना सहज श्रेष्ठता मेधस रचना और मेधस तंत्रणा ही प्रधान है। हृदयतंत्र, मेधस तंत्र यही मुख्य तंत्र है। इस प्रकार शरीर में मेधस और मेधस तंत्र, हृदय और हृदय तंत्र सहअस्तित्व में शरीर व्यवस्था कार्य सम्पन्न होना मानव शरीर के लिये रस, रसायन स्रोत, पाचन परिणाम, अनावश्यकता का विसर्जन, ये सब तंत्रणाएँ ऊपर कहे गये दोनों तंत्रों के आधार पर कार्यरत रहना पाया जाता है। इसी को शरीर व्यवस्था का नाम दिया जाता है। शरीर जीवन्त न रहने की स्थिति में स्वतंत्र रूप में आहार आदि क्रियाओं का सम्पादन नहीं हो पाता है और ज्ञानेन्द्रियों का क्रियाकलाप शून्य हो जाता है। ऐसे बहुत सारे उदाहरणों को मानव ने देखा है। इससे यह स्पष्ट होता है-शरीर को जीवन्त बनाए रखने का मूल तत्व जीवन ही है। जीवन ज्ञान के साथ-साथ ही यह तथ्य स्वीकार हो पाता है। तब तक भ्रमित रहना भावी है ही। भ्रम का सबसे चिन्हित गवाही यही है - शरीर को जीवन समझना। शरीर को जीवन समझने के मूल में जीवन सहज कल्पना ही आधार है। यह भ्रमित रहने के कारण ऐसा मानना होता है। फलस्वरूप जीवन अपेक्षा के विपरीत, मानव अपेक्षा के विपरीत घटित होता है, यही कारण रहा है जागृति विधि को मानव परंपरा को अपनाने के लिये आवश्यकता बलवती हुई।

दृष्टा पद का सर्वप्रथम उपलब्धि शरीर का दृष्टा होना ही है। शरीर का दृष्टा होने के आधार पर ही ऊपर इंगित किये गये तथ्य स्पष्ट हुआ है। उक्त तथ्यों को हृदयंगम करने से जागृति की संभावना समीचीन होती ही है। इसी आशय से यह अभिव्यक्ति है। दृष्टा होने का सतत फलन यही है हर स्थिति-गति, योग-संयोग, फल-परिणाम परिपाक और प्रवृत्तियों का मूल्यांकन होना सहज हो जाता है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न मानव मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान का मूल्यांकन, अस्तित्व सहज प्रयोजन का मूल्यांकन करता

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