1.0×

अर्पित, समर्पित कर समृद्धि को स्वीकार लेता है। जहाँ तक समाधान, अभय और सहअस्तित्व में जीवन ही अनुभव करना देखा गया है। जीवनापेक्षा संबंधी सुख, शांति, संतोष आनन्द का भोक्ता केवल जीवन ही होना देखा गया है।

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता : के रूप में भी चर्चाएँ प्रचलित रही हैं। इस संदर्भ में भी कोई अंतिम निष्कर्ष अध्ययन गम्य होना सम्भव नहीं हुआ था। अब अस्तित्वमूलक, मानव केन्द्रित चिन्तन, विचार अध्ययन और प्रमाण त्रय के अनुसार ज्ञान जीवन कार्यकलाप ही है। इसे अन्य भाषा से जागृतिपूर्ण जीवन कार्यकलाप ही ज्ञान है। सहअस्तित्व ज्ञेय है अर्थात् जानने योग्य वस्तु है। सहअस्तित्व में जीवन अविभाज्य रूप में वर्तमान रहता है। जीवन नित्य होना सुस्पष्ट हो चुकी है। इसलिये जीवन जागृति के अनन्तर जागृति की निरंतरता स्वाभाविक है। इन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है जागृत जीवन ही ज्ञाता है। जीवन सहित सम्पूर्ण अस्तित्व ही ज्ञेय है और जागृत जीवन का परावर्तन क्रियाकलाप ही ज्ञान है।

सहअस्तित्व ही अनुभव करने योग्य समग्र वस्तु है यह स्पष्ट हो चुकी है। अस्तित्व स्वयं सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में स्पष्ट है। अस्तित्व में अनुभूत होने की स्थिति में सत्तामयता ही व्यापक होने के कारण अनुभव की वस्तु बनी ही रहती है। इसी वस्तु में सम्पूर्ण इकाईयाँ दृश्यमान रहते ही हैं। परम सत्य सहजता सहअस्तित्व ही होना, अस्तित्व में जब अनुभूत होना उसी समय से सत्तामयता में अभिभूत होना स्वाभाविक है। अभिभूत होने का तात्पर्य सत्ता पारगामी व्यापक पारदर्शी होना अनुभव में आता है। अनुभव करने वाला वस्तु जीवन ही होता है। इस विधि से सत्तामयता को ईश्वर, ज्ञान, परमात्मा के नाम से भी इंगित कराया है। यही सहअस्तित्व में अनुभूत होने का तात्पर्य है अर्थात् सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है। अस्तित्व में अनुभव इस तथ्य का पुष्टि होना स्वाभाविक है। सत्ता में प्रकृति अविभाज्य है। सत्ता विहीन स्थली होता ही नहीं है। सत्ता में प्रकृति नित्य वर्तमान रहता ही है। इस विधि से सत्तामयता का पारगामीयता जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा सम्पन्न रहने के आधार पर प्रमाणित हो जाता है। इस विधि से सत्तामयता में ही अविभाज्य रूप डूबे, घिरे हुए व्यवस्था में दिखाई पड़ते हैं। यही परमाणु, अणु, अणु रचित पिण्ड अनेक ग्रह-गोलों के रूप में देखने को मिलता है। यही परमाणु, अणु, अणु रचित रचनायें प्राणावस्था का संसार, जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर ही दृष्टव्य है। इन सबका दृष्टा जीवन ही है। सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरन्तर होना देखा गया है। इसी अनुभव के अनन्तर सहअस्तित्व सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ में आता है। जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात् परावर्तन अनुभवमूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है। अतएव

Page 114 of 151