युद्ध के लिए व्यापार एक अनिवार्यता रही। अभी तक जितने भी युद्ध-व्यापार हुए, देश, देशों के बीच, पहले से अधिक शंका-कुशंका भयोत्पादी क्रम में प्रभावित हुआ। यह सम्पूर्ण मानव का देखा हुआ तथ्य है। व्यापार और युद्ध के लिए द्रोह-विद्रोह अति अनिवार्य रहा। इस प्रकार युद्ध पूर्वक शोषण, व्यापार पूर्वक शोषण कार्यों को इस धरती पर देखा गया है। जो अत्यधिक शोषण कर लेता है उसे विकसित देश कहने, स्वीकारने तक मानव जाति तैयार हो गयी। जबकि युद्ध, शोषण, द्रोह, विद्रोह समाज रचना और समाज वैभव का सूत्र नहीं बन पाती है। इसलिये व्यापार और नौकरी में लगे हुए आदमियों से समाज रचना, समाज संरक्षण, समाज संतुलन, समाज नियंत्रण जैसी महत्वपूर्ण मुद्दों का पूरक होना, इस धरती पर देखा नहीं गया। यहाँ इन तथ्यों को उद्घाटित करने के मूल में आशय यही रहा कि हम मानव जाति किस प्रकार के प्रवृत्तियों के चंगुल में आ चुके हैं जिसके फलस्वरूप मानव परेशान होता ही है, उसके साथ-साथ धरती उजड़ने की ओर गति बन चुकी है।
चाहे उपयोगिता विधि से हो, चाहे संग्रह विधि से हो, चाहे युद्ध के लिये हो, चाहे जो कुछ भी वस्तुएँ चाहिये उनकी इस धरती से ही आपूर्ति होना, इसके लिए वन खनिज ही स्त्रोत है। धरती में जो कुछ भी वन खनिज बनी है, मानव के अवतरण के पहले से ही स्थिति में था ही उसके अनन्तर ही मानव का अवतरण इस धरती पर हुआ। मानव अपने को अखण्ड समाज के रूप में जीने की आवश्यकता को सोचा ही नहीं है। फलस्वरूप जीव-जानवरों के सदृश्य नस्ल, रंग के आधार पर लड़-भिड़कर अपने भद्दगी जितना करना था वह सब कर चुका।
अभी इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक में देश, देश के साथ कूटनीतिक व्यापारोन्मुखी शोषण तंत्र का मुद्दा यही है कि विकसित देश कहलाने वाले, ऐसा कहलाने के लिए पैमानों को पहचाना गया है, अधिकाधिक सुवर्ण धातु जिस राष्ट्र कोष में संग्रहित हो चुका हैं उस देश का मुद्रा विकसित हो जाता है। यह व्यापार तंत्र का धन, धन को पैदा करता है सिद्धांत के आधार पर आधारित है। जिन-जिन देश के राष्ट्र कोष में सुवर्ण धातु कम रहती है उस देश की मुद्राएँ अविकसित रहती है। दूसरे भाषा में ज्यादा मूल्यवान, कम मूल्यवान हो जाता है जबकि दोनों कागज ही रहता है।
दूसरा विकास का मापदण्ड समर शक्तियाँ, सामरिक सामग्री, सामरिक प्रयास जिन देशों में सर्वाधिक रहता है, उसी को विकसित देश कहा जाता है। युद्ध से शोषण की चर्चा सुनने में मिलता ही है। इस शताब्दी में हुई युद्धों के सिलसिले में भी शोषण-लूट-खसोट की चर्चाएँ जनवार्ताओं में देखा गया है। इन दो मापदंडों में जो विकसित देश है, अब अन्य देशों के वन खनिज को उपयोग करने के लिए इच्छुक हो चुके हैं इसके लिये सभी योजनाएं बन चुकी हैं। यहाँ उक्त तथ्यों का उल्लेख करने का आशय इतना ही है जिन युद्ध,