शोषण, द्रोह-विद्रोह पूर्वक लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद की ओर सभी विधा में अग्रसर है। उसके लिए अंत विहीन साधनों की अपेक्षा मानव मात्र में होना देखा जा रहा है। इसकी आपूर्ति इस धरती से संभव नहीं है। इसलिये और भी संघर्ष की ओर इसका स्पंदन दिखाई पड़ती है। अतएव इससे मुक्त होना सहज सुंदर, सुखद, समाधानपूर्ण परंपरा बनानी ही है।
इस विधि से हम इन तथ्यों के प्रति स्पष्ट हो चुके हैं कि वस्तुओं के आधार पर (रासायनिक-भौतिक) मानवाकांक्षा सम्मत व्यवस्था नहीं हो पाती है। यह जीवन जागृति मूलक विधि से ही सम्पन्न होना देखा गया है। जीवन में ही तुलन कार्यकलाप सहज रूप में ही सम्पन्न होने के कारण भौतिक-रासायनिक वस्तु संसार में प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ तुलन के कसौटी पर देखा जा सकता है, देखा गया है। न्याय, धर्म, सत्य को मानव चेतना पूर्वक सर्वतोमुखी समाधान (धर्म) सहअस्तित्व सहज परम सत्य दृष्टियों के आधार पर अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था को परंपरा के रूप में पाना सहज समीचीन है। बहुमुखी अभिव्यक्ति रूपी मानव सर्वतोमुखी समाधानपूर्वक ही व्यवस्था और उसका सार्वभौमता को प्रमाणित करने में सक्षम है। इसे योग्यता और पात्रता में प्रमाणित कर देना ही मानव परंपरा का प्रतिष्ठा है, क्योंकि जीवन में अक्षय शक्ति, अक्षय बल अविनाशिता सहित नित्य समीचीन है। उसे व्यवस्थात्मक प्रणालियों के रूप में परिशोधित प्रवर्तित करने की आवश्यकता है।
न्याय, धर्म, सत्य को स्वीकारने वाला, व्यंजित होने वाला, प्रमाणित होने वाला और प्रमाणों को प्रस्तुत करने वाला मानव जीवन ही है। इस तथ्य को भले प्रकार से देखा गया है। प्रिय, हित, लाभानुवर्ती कार्यकलापों में व्यस्त रहते हुए भी न्याय, धर्म, सत्य की स्वीकृति, अपेक्षा, कल्पना करता हुआ मानव को देखा जाता है यही इस बात का द्योतक है। इन्द्रिय सन्निकर्ष में प्रिय, हित व्यंजनाएँ होते हुए लाभ की कल्पना (अस्पष्ट आशा, विचार, इच्छा का क्रियाकलाप) लाभ की स्वीकृति को मानव में होना पाया जाता है। इसका अंतिम सर्वेक्षण हानि का अस्वीकृति, लाभ की स्वीकृति। उल्लेखनीय तथ्य यही है अस्तित्व में लाभ-हानि का कोई विधि नहीं है। इसलिए कहीं लाभ होता है तो कहीं हानि हो ही जाता है। इसलिए आज तक लाभोन्मुखी व्यापार विधि से कोई संतुष्टि बिंदु अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। जबकि मानव हर विधाओं में संतुष्ट होना चाहता है। इसीलिए चाहना, होने का विरोधी है। सम्पूर्ण क्लेश भ्रमवश ही हो पाता है। जीवन ही भ्रमवश शरीर को जीवन समझने का फलन है। जीवन, जीवन को समझने के उपरान्त भ्रमजाल कष्टों से मुक्त होने के लिए उपायों को सोचना स्वाभाविक है। इसी क्रम में यह अध्ययन के लिए प्रस्तुत किया गया है। अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है, इसलिए लाभ-हानि से मुक्त है, इसलिये नाश से मुक्त है। इस प्रकार अस्तित्व नित्य वर्तमान रूप में अपने यथास्थिति में बने रहने का वैभव स्पष्ट है। अस्तित्व में अविभाज्य