1.0×

मानव भी सहअस्तित्व में अनुभूत होना स्वाभाविक है। सहअस्तित्व में ही व्यवस्था का विधान है। विविधता के साथ ही जुड़ा हुआ परस्पर पूरकता सूत्र ही विधान है। ऐसा विधान नियति सहज रूप में नित्य प्रभावी है। यही सहअस्तित्व का प्रमाण है। इसका और प्रमाण ग्रह-गोल एक दूसरे के पूरक होना; पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था परस्पर पूरक होना ही है।

पूरकता सहज विधि से अनुप्राणित होना रहना ही व्यवस्था सूत्र का आधार है। यह संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता का संतुलन रूप में कार्यरत होना देखा गया है। जानने-मानने के रूप में संज्ञानशीलता को और पहचानने-निर्वाह करने के रूप में संवेदनशीलता को हर मानव अपने में और सम्पूर्ण मानव में पहचान सकता है। यही संवेदनाएँ अर्थात् पहचानने-निर्वाह करने का प्रवर्तन क्रम में पूरकता विधि अपने आप से चरितार्थ होता है। ऐसी चरितार्थता जीवन सहज अक्षय शक्तियों का ही वैभव है। इस क्रम में सम्पूर्ण मानव अपने को प्रयोजित कर पाना समीचीन है। इस क्रम में यह पता लगता है, समझ में आता है। मानवीयतापूर्ण आचरण के रूप में प्रमाणित हो जाता है कि मानव संचेतना अर्थात् संवेदनशीलता संज्ञानशीलता में, से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना यह पूणर्तया जागृत मानव सहज कार्यकलाप है। जीवन ही संज्ञानीयता का, मानव ही संज्ञानीयता-संवेदनशीलता का धारक-वाहक है। इस तथ्य को भले प्रकार से देखा गया है। निर्वाह करने की स्थिति में हर मानव द्वारा प्रमाणित होना आवश्यकता के रूप में देखा गया है। ऐसे प्रमाणीकरण क्रम में ही न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित होना स्वभाविक है।

शरीर तंत्र में प्रधानत: मेधस तंत्र ही सर्वोपरि सूक्ष्म तंत्र के रूप में देखने को मिलता है। मेधस तंत्र रचना सर्वाधिक पुष्टि तत्व से बना हुआ दिखाई पड़ता है। यह जीवन विचारों के साथ-साथ तंत्रित होना स्पष्ट होता है क्योंकि जीवन्त शरीर में ही मेधस तंत्र ही इसके क्रियाकलापों को करता हुआ देखने को मिलता है। इस रचना में कहीं भी ऐसी स्थली नहीं है जिसमें न्याय, धर्म, सत्य को बनाए रखे। इसी प्रकार हृदयतंत्र, फुप्फुसतंत्र, आंत्र तंत्र, प्लीहा तंत्र, वृक्कतंत्र, मलाशय, गर्भाशय तंत्रों में इसे बनाये रखने का कोई स्थली नहीं है। और भी देखा गया पाँचों कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों में भी न्याय, धर्म, सत्य को पहचानने की स्थली कुछ भी नहीं है। इन तथ्यों से यह विदित हो जाता है कि जीवन शक्तियों से तंत्रित मेधस तंत्र द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का कार्यकलाप सम्पन्न होता हुआ स्पष्टतया देखा गया है। अतएव जीवन ही न्याय, धर्म, सत्य को जानता है, मानता है, पहचानता है, निर्वाह करता है। फलस्वरूप जीवनाकांक्षा रूपी सुख, शांति, संतोष, आनंद भोगता है। भ्रमवश ही शरीर को जीवन मानते हुए प्रिय, हित, लाभात्मक प्रवृत्तियों में ग्रसित होते हुए स्वयं दुखी होता है, अन्य को दुखी बनाता है। नैसर्गिकता को भी अव्यवस्था में परिणित कर देता है। इस प्रकार से मानव अभी तक भ्रमित कार्यों को पूरा करने वाला है या कर चुका है। अब शेष जागृत कार्यों विचारों

Page 146 of 151