ही घटित होना देखा गया है। सम्पूर्ण भ्रम का पोषण राजगद्दी एवं धर्मगद्दी करता है। इसका स्रोत शिक्षा-गद्दी है। इस प्रकार शिक्षा गद्दी को जागृत होना आवश्यक है। इसके फलन में मानव धर्म ही अखण्ड समाज के अर्थ में सर्वमानव में, से, के लिये आश्वस्त और विश्वस्त होना नित्य समीचीन है। इससे सम्पूर्ण समुदायों जो अपने को समाज कहते है उनका विलय होगा ही। दूसरा परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सहज विधि से अनेक राज्यों की परिकल्पना तिरोभावित होगी। इस प्रकार धरती की अखण्डता अपने में सम्पूर्णता के साथ स्वस्थ होने का शुभ दिशा प्रशस्त होगा। इसी के साथ मानव कुल में वांछित संयमता, प्रदूषणविहीन प्रौद्योगिकी, ऋतु संतुलन, जनसंख्या नियंत्रण सहित स्वस्थ मानसिकतापूर्ण मानव इकाई इस धरती के ऊपरी सतह में सहज रूप में निष्पन्न होती रहेगी। उसी के साथ सहअस्तित्व विधि से सदा-सदा के लिये पीढ़ी से पीढ़ी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक जीने की कला, विचार शैली, अनुभव बल सम्पन्न होगा। यही समृद्ध मानव परंपरा का स्वरूप होना स्पष्टतया समझा गया है।
यह समझदारी अस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से स्पष्ट हुआ है। यही मूलतः अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन की अभिव्यक्ति है।
अनुभवमूलक विधि से शिक्षा का स्वरूप अपने आप से जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सहज विधि से शिक्षा-संस्कार सम्पन्न करने का उपक्रम सहज होना देखा गया है। इसे सर्व सुलभ करना सम्भव है। इस तथ्य को भी परिशीलन कर चुके हैं। ऐसी शिक्षा-संस्कार को मानवीय शिक्षा-संस्कार का नाम दिया है। यह शिक्षा का स्रोत सहअस्तित्व सहज है। इस बात को सत्यापित किये हैं। अस्तित्व में नित्य व्यवस्था है न कि शासन। शासन को व्यवस्था मानना ही पूर्ववर्ती दोनों विचारधारा भटकने का एक बिन्दु रहा है। दूसरा प्रधान बिन्दु अस्तित्व को समझने में असमर्थ रहा है या अड़चन रहा है अथवा भ्रम से पीड़ित रहे हैं। इन्हीं कारणों से दोनों प्रकार के विचारधाराएँ अस्तित्व सहज यर्थाथता, वास्तविकता, सत्यता को स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में अनुभव करने में वंचित रहे हैं या अनुभव हुआ किन्तु अभिव्यक्ति संप्रेषणा में प्रमाणित होना संभव नहीं हो पाया है। जबकि हमें अस्तित्व में अनुभव के अनंतर अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन में कोई अड़चन उत्पन्न नहीं हुई। अब यह भी सर्वेक्षण, निरीक्षण, परीक्षण की बेला समीचीन है कि यह संप्रेषणा मानव कुल में, से, के लिये आवश्यकता के रूप में विदित होगा या नहीं। हमें इस पर पूर्ण भरोसा है - मानव में, से, के लिये अस्तित्व में अनुभव एक आवश्यकता के रूप में स्वीकार्य हुआ हो ऐसी स्थिति में यह अभिव्यक्ति, संप्रेषणाएँ स्वाभाविक रूप में बोधगम्य, हृदयंगम पूर्वक सहअस्तित्ववादी मार्ग को प्रशस्त करेगा क्योंकि अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में नित्य विद्यमान है।