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इस दशक तक दंडाधिकार, दमनाधिकार, पूंजी का अधिकार, धरती का अधिकार, मानव पर अधिकार, जीवों पर अधिकार, वनों पर अधिकार, खनिजों पर अधिकार, प्रौद्योगिकी पर अधिकार, व्यापार अधिकार, राज्याधिकार, समुद्र और आकाश पर अधिकार, धर्माधिकार और बौद्धिक संपदाओं पर अधिकारों का चर्चा, अधिकारों की सीमा और मर्यादाओं पर भी ध्यान दिया जाना देखा गया। इन सभी मुद्दों के संबंध में कई समुदायों अथवा सभी समुदायों का सम्मिलित अथवा समुदाय प्रतिनिधियों का सम्मिलित गोष्ठी, विचारपूर्वक गोष्ठी, विचार पूर्वक निर्णयों को स्वीकारा गया। अब ऐसी सभी स्वीकार्यताएं महिमामय दस्तावेजों के रूप में माने गये हैं। महिमा सम्पन्न दस्तावेज का तात्पर्य जिस स्वीकृतियों का हेराफेरी होने से उसके लिये डरावनी सबक सीखने के लिये स्वीकृतियाँ बनी रहती हैं। या इसको मर्यादा माना जाता है। ये सब ऐसे मौलिक दस्तावेजों का मूल तात्पर्य सभी अपने-अपने देश में शांतिपूर्वक जी सके इसी मानसिकता से उक्त सभी बातों पर एक समझौता किया जाता है। जबकि अभी तक पूर्वावर्ती किसी भी चिन्तन के अनुसार, कोई भी वाङ्गमय जो मानव सम्मुख प्रस्तुत हुई है उसमें सार्वभौम शांति का कोई परिभाषा, प्रतिपादन, उसका व्याख्या संप्रेषित नहीं हो पाया। साथ ही सुख शांति की अपेक्षा हर मानव में होना पाया जाता है।

उक्त मुद्दों पर स्वीकृत अधिकारों के आधार पर किये गये समझौते बारंबार बदलते भी रहते है। इसी के साथ इस शताब्दी के अंतिम दशक तक में यह भी देखा गया जिस देश के पास सर्वाधिक समर शक्ति हाथ लगी है वह किसी के अधिकारों को भी हथिया लिया है और अपने अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। इस शताब्दी के पहले भी इस प्रकार के नजीरें उपनिवेश के रूप में घटित होना ख्यात हो चुकी है। इस प्रकार कोई भी अपने सामरिक कूटनीतिक (अन्तःकलह को पैदा करो-राज करो) मानसिकता से ही पहले भी जो अपना देश नहीं है ऐसे देशों पर अधिकार पाने का प्रयोग किया है। यह राज्याधिकार मानसिकता मूलतः अपने स्वजनों, स्वजातियों और स्वदेशियों के सुविधा के लिये अन्य देश की सम्पदाओं को अपहरण कर, शोषण कर अपने देश में उपयोग करने के रूप में प्रयास करना देखा गया है। आदिकाल से ही सामरिक शक्ति सम्पन्न राज्य को विकसित राज्य, उस देश में निवास करने वालों को विकसित जनजाति होना मान्यता के रूप में लोकव्यापीकरण हुआ है जबकि युद्ध न तो विकास का आधार है, न कड़ी है, न प्रक्रिया है। क्योंकि इससे अखण्ड समाज का एक भी सूत्र-व्याख्या, प्रयोजन प्रमाणित नहीं होता। जबकि मानवीयतापूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति से अखण्ड समाज का ही सूत्र रचना, व्याख्या व प्रयोजन नित्य समीचीन है। इससे वंचित होने का एक ही कारण है, भ्रमात्मक मानसिकता अथवा भय, प्रलोभन, आस्थाओं से ग्रसित मानसिकता ही है। अभी तक जितने भी झीना-झपटी युद्ध, विश्वयुद्ध हुए हैं, वे सब उक्त तीनों आधारों पर ही सम्पन्न हुए हैं। अतएव अनुभवमूलक विधि से ही मानवीयतापूर्ण पद्धति प्रणाली नीतिपूर्वक है। अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा

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