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में प्रस्तुत है। मानव ही ज्ञानावस्था की इकाई होने के कारण जागृति और सर्वतोमुखी समाधान को स्वीकारता ही है। यह अनुभवमूलक विधि से ही सर्वसुलभ होता है। ऐसे अनुभव और जागृति विधि से ही इस धरती को सुरक्षित बनाये रखने में मानव की भागीदारी अपेक्षा रूप में स्वीकार हो चुकी है।

भ्रम का कार्य रूप अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोष ही है। यही अधिमूल्यन, अवमूल्यन, निर्मूल्यन क्रियाओं के रूप में देखने को मिलता है। इसका (भ्रम का) मूल रूप बन्धन है। बन्धन स्वयं में जागृति क्रम है। उसके पहले जीवनी क्रम है। मूलतः जीवन ही है। जीवन अपने में गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है। जीवन परमाणु भार और अणुबन्धन से मुक्त रहता है और आशा बन्धन से कार्यप्रणाली आरंभ होता है। जीवन में आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और अनुभव प्रमाण जैसी शक्तियाँ और मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा रूपी बल अविरत रूप में विद्यमान रहता है। बल और शक्ति अविभाज्य रूप में रहते हैं। यह प्रकृति सहज प्रत्येक इकाई में प्रकाशित महिमा है। गठनपूर्ण परमाणु ही जीवन के रूप में कार्य करता हुआ समझ में आता है। गठनपूर्ण होने के पहले सभी परमाणु भौतिक-रासायनिक कार्यकलापों में भागीदारी निर्वाह करने में, देखने में आता है। रासायनिक और भौतिक संसार में जो कुछ दिखाई पड़ता है वह सब अनेक परमाणु से अणु, अनेक अणु से रचनाएँ वर्तमानित है।

भौतिक संसार के रूप में पदार्थावस्था और प्राणावस्था के रूप में वनस्पति संसार एवं सभी जीव शरीर तथा मानव शरीर रचना अर्थात् रासायनिक संसार होना दिखाई पड़ता है। यहाँ संसार का तात्पर्य सार रूप में अर्थात् प्रयोजन रूप में रचनाओें को प्रस्तुत करना ही है। इसका प्रमाण भौतिक-रासायनिक संसार में प्रत्येक इकाईयाँ अपने-अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में ही हैं। बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक मानव अपने ‘मानवत्व’ सहित व्यवस्था होने में प्रतीक्षारत है। प्रतीक्षारत रहना भ्रम मुक्ति की ओर गति अथवा दिशा सहज अपेक्षा का द्योतक है। भ्रमित रहना बंधन की प्रगाढ़ता का द्योतक है। इन दोनों स्थिति में अमानवीयता ही प्रचलित रहते हुए, बंधन की पीड़ावश अथवा भ्रम सहज कुण्ठावश जागृति की प्रतीक्षा होना देखा जाता है। प्रगाढ़ रूप में भ्रमित व्यक्ति, समुदाय अथ से इति तक शरीर को जीवन मानने-मनाने के लिये कटिबद्ध रहता है। यही जीवन सहज अनुभव और जागृति का निर्मूल्यन बिन्दु है। जीवन के स्थान पर शरीर को ही जीवन मान लेना प्रगाढ़ भ्रम का गवाही है। इसी भ्रमवश ही मानव जितने भी भ्रमात्मक क्रियाकलापों को कर पाता है वह सब समस्या में ही परिणित हो जाते हैं। जैसे, विज्ञान संसार की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ दूरसंचार के रूप में और दूसरा उत्पादन कार्यों में गति के रूप में यंत्रों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यह अपने में उपलब्धियाँ होते हुए मानव में जागृति, अनुभव परंपरा न होने के कारण

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