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मानवीयतापूर्ण आचरण में दूसरा आयाम है नैतिकता, यह चरित्र के पूरकता में होना देखा गया है, वह है, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा के रूप में सार्थक होना। अर्थात् मानवीयता पूर्ण चरित्र में, से, के लिये यह नैतिकता पूरक होना पाया जाता है। अर्थात् अर्थ का सदुपयोग विधि, सुरक्षा विधि ही नैतिकता है। इसी प्रमाण के आधार पर अर्थ का सुरक्षा विधि से सदुपयोग, सदुपयोग विधि से सुरक्षा प्रयोजन स्पष्ट होता है। इसलिये अर्थ का सदुपयोगिता सिद्धान्त सुरक्षा के लिये और सुरक्षा सिद्धान्त सदुपयोग के लिये पूरक होता है। अस्तु, इससे आचरण में नैतिकता रूपी दूसरा आयाम सहज प्रयोजन स्पष्ट है। यह सर्वमानव मानस का अपेक्षा है ही अथवा सर्वाधिक मानव का अपेक्षा है। यथा-हर मानव अपने तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा चाहता ही है।

मानवीयतापूर्ण आचरण का तीसरा आयाम चरित्र है। चरित्र का स्वरूप स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार के रूप में पहचाना गया है। चरित्र का क्रियाकलाप सामाजिक नियम के रूप में सम्पन्न होना पाया जाता है। समाज शब्द से अखण्डता इंगित तथ्य और उसका कार्य स्वरूप जीवन सहज पूर्णता (जागृति) को शरीर रूपी माध्यम से मानव परंपरा में प्रमाणित करना ही है। मानवीयतापूर्ण आचरण से हर व्यक्ति सम्पन्न होना, सार्थक होना मानव के लिये स्वत्व रूप में समीचीन है ही। इसी के साथ-साथ हर मानव में इसकी आवश्यकता का भास-आभास बना ही है। स्वधन का परिभाषा है - अर्थात् कार्य रूप है, प्रतिफल, पारितोष और पुरस्कार से प्राप्त धन। मूलतः धन का स्वरूप उपयोगिता और सुन्दरता मूल्य सम्पन्न वस्तुओं के रूप में होना पाया जाता है। जैसे आहार, आवास, अलंकार, दूरदर्शन, दूरश्रवण और दूरगमन रूपी वस्तुएँ है। इन सबमें उपयोगिता मूल्य, कला मूल्य को मानव ही मूल्यांकित करता है। ऐसी सभी वस्तुएँ (धन) मानव सहज श्रम नियोजन पूर्वक सम्पन्न हुआ होना पाया जाता है। ऐसा धन किसी का भी स्वत्व रूप में होता है, प्राकृतिक ऐश्वर्य पर नियोजन किया गया श्रम के फलन में ही स्पष्ट होता है। ऐसे फलन को ही श्रम का प्रतिफल है। पारितोष भी किसी का स्वधन होना स्वाभाविक है। अपने स्वधन को स्वयंस्फूर्त प्रसन्नता में, से, के लिये हस्तांतरित करना, अर्पित करने की क्रिया को पारितोष संज्ञा है। पुरस्कार से प्राप्त धन किसी सार्थक घटना, कार्य, प्रमाण, प्रकाशन, अभिव्यक्ति, संप्रेषणा प्रकाशन के फलस्वरूप उत्सव का अनुभव करता हुआ एक से अधिक लोग एकत्रित होकर ऐसे धन को अर्पित करने की क्रिया है। इन तीनों प्रकार से प्राप्त धन स्वधन की संज्ञा में आता है। तन, मन के साथ ऐसे स्वधन को सदुपयोग, सुरक्षा करने का अधिकार हर मानव में होता है।

स्वनारी/स्वपुरूष का प्रयोजन इस विधि और आधार से देखा गया है कि समाज रचना क्रम में एक नारी-पुरूष का शरीर संयोग मानव शरीर रचना अथवा संतान परंपरा के लिए आवश्यकता विधि से सहज

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