1.0×

करता है कि जीवों के हृदय में ईश्वर जैसे ही वस्तु निहित या समाहित रहता है। जिसको आत्मा कहा गया है। कुछ लोग जीव का ही होना मानते हैं, कुछ लोग जीवों में आत्मा भी मानते हैं। मूल ग्रंथ में इन दोनों को न मानने वालों को शुद्धतः शरीरवादी कहते हैं। इसीलिये शरीरवादी भी अपने ढंग से धर्म विचार रखते हैं क्योंकि शरीर को ईश्वर बनाता है ऐसी उनकी मान्यता है। धरती, जल, खनिज सब ईश्वर से ही बना हुआ वस्तुएँ हैं। ईश्वर की इच्छा जब तक रहती है तब तक ये बने रहते हैं। ईश्वर की इच्छा से ही ये सब लय को प्राप्त करते हैं।

मुक्ति का मुद्दा जीवों से सम्बन्धित है। जीव ही शरीर को धारण करता है। जन्म-मृत्यु के चक्कर में आता है। कर्मफल बन्धनवश स्वर्ग-नर्क में आवागमन करता है अथवा शरीर को छोड़कर जब तक ईश्वर मुक्त नहीं करता है तब तक ईश्वर का इंतजार करता है। ऐसे विविध प्रकार से प्रतिपादन करते हुए ईश्वर कृपा होने पर ही मोक्ष होने का आश्वासन है। ईश्वर कृपा पाने के लिये हर सम्प्रदाय में कार्य, विधि, कर्मकाण्ड और संस्कार विधियों को लिखा हुआ है। उसे संस्कारित करने वाले उन-उन धर्मों का धारक-वाहक माने जाते हैं। संस्कारित होने वाले भी संस्कारित होकर उन धर्मों में निष्ठा मान लेते हैं। प्रधानतः संस्कारों का पहचान, नाम, संस्कार, जाति, शिक्षा-दीक्षा, धर्म और कर्म संस्कार ये प्रमुखतः हर धर्म परंपरा में उन-उन परम्परा के अनुयायियों को स्वीकृत होता है।

जहाँ तक शिक्षा की बात है यह प्रचलित विज्ञान युग के अनन्तर धर्म-कर्म शास्त्रों से भिन्न भी शिक्षा-स्वरूप और कार्य समाहित हुई। इसे विज्ञान शिक्षा अथवा व्यापार शिक्षा कह सकते हैं। शिक्षा जगत में तकनीकी विज्ञान इस धरती के सभी भाषा, सम्प्रदाय, धर्म, जाति, मत, पंथ वाले अपना चुके हैं। धर्म परंपराओं का जो कुछ भी चिन्हित लक्षण अथवा पहचान हुआ वह किसी का जन्म होने से उत्सव मनाने के रूप में, किसी के शादी-विवाह अवसर में उत्सव मनाने के तरीके से और किसी की मृत्यु होने से बंधुजन शोक संवेदना को व्यक्त करने के तरीके से होता है। सभी सम्प्रदाय अपने-अपने तरीके को श्रेष्ठ मानते ही रहते हैं।

हर समुदाय ईश्वर कृपा को पाने के लिये विभिन्न प्रकार के साधना-अभ्यास परम्पराओं को बनाए रखे हैं। इसमें सबका गम्यस्थली ध्यान और समाधि मानी गई है। ऐसे निश्चित ध्यान के लिये विविध उपायों को अपने-अपने परंपरा के अनुसार स्थापित किये हुए हैं। सम्पूर्ण प्रकार से प्रस्तावित ध्यान क्रियाएँ विचारों को सीमित और एक बिन्दुगत होने के उद्देश्य से किया जाता है। इसमें कोई-कोई सफल भी हो जाते हैं। सफल होने का तात्पर्य विचारों का उपज न्यूनतम अथवा शून्य अर्थ में मानी जाती है। ऐसे मानसिकता को मौन होना भी माना जाता है। निर्विचार होना भी माना जाता है। इसी को कैवल्य अवस्था या परम सुखद

Page 84 of 151
80 81 82 83 84 85 86 87 88