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धर्म कहलाने वालों के पुस्तिका में विभिन्न प्रकार से सूत्रित, व्याख्यायित हुई। जो जिस जाति धर्म के नियम कानून रूपी (ईश्वरीय नियम कानून रूपी) कार्यकलापों को उन्हीं-उन्हीं को स्वर्ग मिलने का स्वीकृति हो पाती है। अन्य प्रकार के धर्म वालों को वह स्वर्ग मिल नहीं सकती है। ऐसा हर सामुदायिक धर्म वाले जो अनुसरण करते हैं और जो आर्षेय ग्रंथों का अनुमोदन करते हैं ये सब कहते भी हैं, मानते भी है। उल्लेखनीय घटना यही है विविध समुदाय, विभिन्न पवित्र ग्रन्थों के आधार पर मान्यताओं को सुदृढ़ किये रहते हैं। ऊपर कहे गये अस्मिता को भी बनाये रखते हैं। इसके बावजूद ऐसा कोई एक आचरण सार्वभौम होना प्रमाणित नहीं हो पाया, जिसको सभी धर्म वाले स्वीकार लिये हो। इसलिये आदिकाल से अभी तक परस्पर समुदायों में अपना-पराया का दीवाल, प्रत्येक परिवार की परस्परता में अपना-पराया का दीवाल, प्रत्येक व्यक्ति की परस्परता में अपना-पराया का दीवाल बना ही रहता है।

इसी के साथ-साथ उपासना, पूजा-पाठ और उसके तरीके के विभिन्नताएँ अपने-अपने श्रेष्ठता और अहमता के साथ पनपते आया। इस क्रम में भी मानव और समुदाय व्यक्तिवादी हैं, क्योंकि सभी उपासना, प्रार्थना, पूजा-पाठ व्यक्तिवादी होता ही है। समूहगत प्रार्थना-पूजा में भी हर व्यक्ति अपनी प्रमुखता और श्रेष्ठता के साथ ही प्रस्तुत होना पाया जाता है। प्रार्थना में अधिकतर ईश्वर की महिमा, विश्व कल्याण, स्वयं का उद्धार, शत्रुओं का नाश की कामना समाहित रहती है। जबकि विश्व कल्याण में व्यक्ति का कल्याण समाया हुआ है और मानव के उद्धार का स्वरूप अभी तक इस धरती पर किसी परंपरागत विधि से अध्ययनगम्य नहीं हो पाया। यह सम्पूर्ण क्रियाकलाप आर्षेय ग्रंथ कथन और आस्था का संयोग से चक्कर काटते ही आया। आस्था का तात्पर्य है “न जानते हुए मान लेने से” है। इसमें और भी उल्लेखनीय तथ्य यही है कि ‘स्व’ का अध्ययन होना अभी भी प्रतीक्षित है। इस मुद्दे पर पहले बता चुके हैं कोई-कोई परंपरा, पावन ग्रन्थ केवल शरीर ही जीवन है ऐसा मानते हैं। कोई-कोई शरीर और जीव होना मानते हैं। कोई-कोई शरीर, जीव, जीव में आत्मा होना मानते हैं। ये सब ईश्वर तंत्र से अथवा ईश्वरेच्छा से निर्मित, वैभवित और प्रलय को प्राप्त होते हैं।

जबकि इस मुद्दे पर अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन विधि से सहअस्तित्व में ही विकासक्रम और विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में देखा गया है जिसे पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था के रूप में होना स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ ज्ञानावस्था में भ्रमवश बन्धन और जागृतिवश मोक्ष होता है। जिसमें से बंधन को विस्तार से आशा बन्धन, विचार बन्धन और इच्छा बन्धन के रूप में विश्लेषित कर चुके हैं।

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