अवस्था मानी गई है। उल्लेखनीय तथ्य यही है ऐसे स्थिति में उनके पास कोई कार्यक्रम होना संभव नहीं होता।
इस मुद्दे पर यह अनुभव किया गया है कि निर्विचार (समाधि) के अनंतर किसी प्रकार का व्यवहारिक आशा, विचार, इच्छा अनुसार भी कोई कार्यक्रम उपजता नहीं है। फलस्वरूप समाधि के अनंतर उस व्यक्ति का उपयोग सिद्ध होना भी नहीं बनता है। इसके मूल तत्व को इस प्रकार पहचाना गया कि विचारों का उद्गम किसी न किसी चित्रण क्रिया के आधार पर सम्पन्न होना देखा गया है। सम्पूर्ण विचारों का उद्गमन “है, चाहिए और करना” इन्हीं मूल ध्रुवों के आधार पर निर्भर रहता है। यह “मुझे कुछ करना है, मेरे पास कुछ है और मुझे कुछ चाहिये” यही ध्रुव है। सम्पूर्ण व्यक्तियों में विचारों का उद्गमन हो पाता है। विचार शून्यता के अनंतर आदमी जीवित रहने का कोई कड़ी नहीं बनता है। इसीलिये ऐसे समाधि के अनन्तर अथवा समाधि में रहते ही शरीर शान्त होने का सूचनाओं को कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यदि कुछ दिन, मास, वर्ष समाधिस्थ व्यक्ति जीवित रहता है (शरीर के साथ) ऐसे स्थिति में उन्हीं-उन्हीं परंपरा के मूल ग्रन्थों का प्रतिपादन का समर्थन करते हुए देखने को मिलता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि “है, करना है, चाहिये” के साथ निषेध लगाना ही निर्विचार होने का सूत्र बना। अस्तु, सम्पूर्ण विचार जब तक चित्रण मूलक विधि से परिसीमित रहता है, कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय व्यापार और उससे सम्बन्धित नैसर्गिकता ही “है, करना है, चाहिए” का आधार बना रहता है।
ऐसे विचारों में से कोई समाधान प्रतिपादित नहीं होती अपितु समाधान के विपरीत समस्याओं का संकट ही हर विचार और कार्यक्रमों के परिणाम में देखने को मिलता है। इसलिये संसार को दुख रूप मानते ही आये हैं। इससे यह सुस्पष्ट हुआ कि जो कुछ भी अभी तक वाङ्गमय, पावन ग्रन्थों से सामान्य ग्रन्थों तक रचित हुआ है यह सब चित्रण मूलक प्रकाशन ही है। इस क्रम में यह भी स्पष्ट हो गया है कि समाधि और समाधिस्थ व्यक्ति के आधार पर कोई स्वस्थ परिवार ही नहीं बन पाया है, समाज तो बहुत दूर है। साधनारत व्यक्ति भी साधना काल में परिवार, समाज अथवा व्यवस्था का भागीदार होना संभव नहीं होता। इस प्रकार से साधनारत समय में एवं साधना सफल होने के उपरान्त विचार शून्यता को ही ज्ञानी होने का एक मात्र उपाय प्रकारान्तर से सभी धर्म वाले बताते हैं। वह मानव उपयोगी होना देखने को नहीं मिला ।
इसी घटना के साथ जुड़ी हुई और घटना तैयार हुई - स्वर्ग के लिये अनुकूल कार्यकलापों को मानव कर सकता है। इसके लिये ईश्वरीय नियमों-कानूनों को बताया गया। हर जाति, हर वर्ण, हर आश्रम जो नियम-कानून, धर्म ग्रन्थों में लिखी हुई है उसको पालन करना ही स्वर्ग में जाने के लिये एक मात्र उपाय बताये हैं। ऐसे नियम कानूनों को पालन करना ही पुण्य कर्म बताया गया। ऐसे नियम कानून विभिन्न प्रकार से