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यह तीनों प्रकार का बन्धन शरीर को जीवन मान लेने से और इन्द्रिय सन्निकर्ष से ही सम्पूर्ण सुख का स्रोत मानने के परिणाम में भ्रम सिद्ध होना पाया गया। जबकि जीवन अपने जागृति को व्यक्त करने के लिये शरीर एक साधन है, इन्द्रिय सन्निकर्ष ही एक माध्यम है। मानव परंपरा ही जीवन जागृति प्रमाण का सूत्र और व्याख्या है। यही भ्रम और निर्भ्रम का, जागृति और अजागृति का निश्चित रेखाकरण सहज बिन्दु है। इन यथार्थों को शिक्षा गद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी अपने में बीते हुए विधियों से आत्मसात करने में असमर्थ रहे हैं। दूसरे विधि से इनका धारक वाहक मेधावी इन मुद्दों पर अनुसंधान करने से वंचित रहे हैं। इसीलिये यह तथ्य मानव परंपरा में ओझिल रही है। इसे परंपरा में समाहित कराना ही इस “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” का उद्देश्य है।

जीवन में सतत् कार्यकारी तीन दृष्टियाँ यथा प्रिय, हित, लाभ बन्धन के रूप में पीड़ा का कारण हुआ इसे हर व्यक्ति अपने में परिशीलन कर सत्यापित कर सकता है। जीवन में ही क्रियारत न्याय, धर्म और सत्यात्मक दृष्टियाँ जागृति बन्धन मुक्ति का सूत्र है। न्याय स्वाभाविक रूप में परस्पर मानव के संबंधों में प्रमाणित होने वाले तथ्य हैं। यह प्रत्येक मानव के अविभाज्य वर्तमान रूपी मूल्य, चरित्र, नैतिकता से प्रमाणित हो जाता है। मानवीयतापूर्ण आचरण में उक्त तीनों आयाम सम्पन्न आचरण देखने को मिलता है। यह आचरण मानवीयता से परिपूर्ण होते तक यह तीनों आयाम एक दूसरे में पूरक होना संभव नहीं है। यह इस तथ्य का द्योतक है कि मानव जागृतिपूर्वक ही मानवीयतापूर्ण आचरण करने में समर्थ होता है। इसको भले प्रकार से परीक्षण, निरीक्षण कर देखा गया है। जागृति का तात्पर्य जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत होने से है। मानवीयतापूर्ण आचरण हर विद्यार्थी में, से, के लिये सुलभ होने से है। सहअस्तित्व ही परम सत्य होने के कारण अस्तित्व में अनुभव होने के क्रियाकलाप को “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” नाम दिया है। इस तरीके से हम सहज ही इस निष्कर्ष में आ सकते हैं कि हर व्यक्ति के जागृत होने की संभावना समीचीन है। जागृत मानव ही स्वायत्त मानव के रूप में मूल्यांकित होना पाया जाता है। ऐसे स्वायत्त मानव स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी होने का सामर्थ्य, प्रक्रिया, ज्ञान, दर्शन विधाओं में पारंगत होता है। ऐसे मानव ही परिवार मानव के रूप में मानवीयता पूर्ण आचरण को प्रमाणित करता है। मानवीयता पूर्ण आचरण में एक आयाम परिवार में परस्पर संबंधों को पहचानने, मूल्यों को निर्वाह करने, मूल्यांकन करने, उभयतृप्ति पाने के रूप में देखा गया है। इसकी अपेक्षा सर्वमानव में होना पाया जाता है। इसके लिये सम्भावना नित्य समीचीन है। यह मूलतः मानव केन्द्रित अध्ययन, चिन्तन के आधार पर ही सफल होता हुआ देखा जाता है।

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