अध्याय – 1
कर्म
कायिक, वाचिक, मानसिक व कृत, कारित, अनुमोदित भेदों से नौ प्रकार से हर मानव कर्म करता है । हर कर्म का फल होता है ।
मानव में कायिक, वाचिक एवं मानसिक कर्म तीनों कालों में प्रसिद्ध है । ये कृत, कारित, अनुमोदित भेद से पूर्णतः नौ प्रकार से गण्य हैं, जो प्रत्यक्ष हैं । मानव का कार्य क्षेत्र केवल प्राकृतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक है, जिसका अभीष्ट सुख है । इससे अधिक या कम नहीं है। इसके बिना मानव में श्रम का विश्राम प्रकटन नहीं है । इसलिए काँक्षा सहित क्रिया ही कर्म, संचेतना सहित गति ही सम्पूर्ण क्रिया है ।
अस्वीकार्य के स्वीकार का जो दबाव है वही वेदना है । वातावरण ही दबाव प्रदायी तथ्य एवं सापेक्षता है, जो प्रत्यक्ष है । सापेक्षता ही ह्रास व विकास का प्रभावशाली तथ्य है ।
प्रत्येक कर्म में कर्ता, कारण, उद्देश्य, फल एवं प्रभाव ये पाँच अंग समाहित रहते हैं । आवश्यकता पूर्ति के लिए ही सम्पर्क एवं संबंध है । आवश्यकता ही इच्छा है, जिसके मूल में समाज, सामाजिकता, उसका पालन, परिपालन, आचरण, अनुसरण एवं अनुशीलन समाया रहता है ।
दर्शन पूर्वक आवश्यकताओं का निर्धारण एवं अनुसरण करने की स्वीकृति के लिए की गयी सम्पूर्ण क्रियाएं इच्छा के रूप में होती हैं जो चैतन्य क्रिया में पाये जाने वाले संचेतना का प्रकटन है ।
प्रत्येक इच्छा व आवश्यकता की पूर्ति से मानव सुखी होने की कामना करता है ।
प्रत्येक कर्म में जो सुख की आशा है, यही अनुभव मूलक विधि से सुख, शान्ति, संतोष व आनन्द सहज रूप से ज्ञातव्य है । इच्छा, कर्म व फल का सन्तुलन ही अभीष्ट सिद्धि है