जिसकी सम्भावना है । बौद्धिक, सामूहिक (सामाजिक) एवं प्राकृतिक उत्थान के लिए निश्चित दिशा के रूप में नियम तथा प्रक्रिया है, यही मानव का अभीष्ट है ।
समस्त कर्म मानव में चिरआशित सुख का पोषक व शोषक सिद्ध हुआ है । यह तीन भागों में ज्ञातव्य है...सुकर्म, दुष्कर्म एवं मिश्रित कर्म । योग एवं जागृति के लक्ष्य भेद से सुकर्म, अपराध एवं प्रतिकारात्मक रूप में दुष्कर्म तथा भोग एवं प्रतिकार के रूप में मिश्रित कर्म दृष्टव्य है । अशेष कर्म फल सापेक्ष है ।
सम्पूर्ण कर्मों का फल चार रूपों में ज्ञातव्य है...मोक्ष, धर्म, काम एवं अर्थ। इच्छा के बिना कर्म नहीं है । मानव में इच्छाएँ तीव्र, कारण एवं सूक्ष्म भेद से ज्ञातव्य है । तीव्र इच्छा, क्रिया के रूप में अवतरित होती हैं । कारण इच्छाएं, क्रिया के रूप में अल्प संभाव्य हैं । सूक्ष्म इच्छाएं, क्रिया के रूप में अत्याल्प संभाव्य हैं ।
तीव्र इच्छाएं - जिसके बिना जीना नहीं होता ।
कारण इच्छाएं - योग, संयोग, घटनावश जो प्रेरणाएं होती हैं यह सब कारण इच्छाएं हैं।
सूक्ष्म इच्छाएं - मानव में सत्य कोई वस्तु है, जैसा सत्य, धर्म, न्याय, कोई वस्तु है जिसको प्रमाणित करने के लिए कोई स्पष्ट विचार नहीं रहता है ।
सम्पूर्ण साधन अन्तरंग एवं बहिरंग भेद से दृष्टव्य है । अन्तरंग साधन आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और अनुभव प्रमाणों के रूप में तथा बहिरंग साधन तन और धन के रूप में पाये जाते हैं । यही जड़ और चैतन्य क्रिया का स्पष्ट रूप है । जड़ व चैतन्य की एकसूत्रता, सन्तुलन व सामंजस्य को पा लेना ही अभीष्ट सिद्धि है । अभीष्ट सिद्धि के लिए प्रत्येक मानव प्रयासरत है, जो प्रत्यक्ष है ।
साध्य (अभीष्ट) के लिए साधक का समर्पण एवं साधन का नियोजन आवश्यक है । साधन ही अर्थ है जो तन, मन एवं धन के रूप में दृष्टव्य है । यह कार्य से निर्मित होने के साथ ही कर्म निर्माण के लिए साधन भी है ।