विषयान्वेषण प्रवृत्ति स्वार्थ में, ऐषणान्वेषण परार्थ में व सत्यान्वेषण परमार्थ में क्रियाशील है ।
स्वार्थपूर्ण व्यवहार अधम और असामाजिक, परार्थ पूर्ण व्यवहार मध्यमोत्तम और सामाजिक, परमार्थ पूर्ण व्यवहार उत्तम, सामाजिक एवं स्वतंत्र है । परमार्थ पूर्ण व्यवहार ही सर्वशुभ मानसिकता है ।
लक्ष्य मूलक, मूल्य मूलक व रूचि मूलक प्रवृत्तियाँ होना पाया जाता है ।
मानव में बुद्धि मूलक एवं रूचि मूलक योगों से सुकर्म-दुष्कर्म जन्य गतिविधियाँ प्रसिद्ध है ।
कासा, आकूति, मेधा, योग-जन्य-बुद्धि प्राप्त योग जन्य बुद्धि; मति सुमति अनुमति सुकर्म-जन्य बुद्धि; अमति, कुमति, दुर्मति, दुष्कर्म-जन्य प्रवृत्ति के प्रत्यक्ष रूप हैं ।
योग-जन्य कासा का प्रत्यक्ष रूप कवि, कोविद्, कलाविद् के रूप में; आकूति दिव्य कर्मी (स्पष्ट अभ्युदयकारी); दिव्य-प्रयोजनशील उपयोग दिव्य ज्ञानी (निर्भ्रान्त) के रूप में तथा मेधा परिपूर्ण ज्ञान समेत मोक्ष (भ्रम मुक्ति) का प्रत्यक्ष रूप है । यही दया, कृपा, करूणा के रूप में प्रकट और स्पष्ट है ।
सुकर्म-जन्य-मति मान्य (सामाजिक) कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में; सुमति-सुकर्म (समाज के लिये आवश्यकीय कर्म) आचरण एवं कार्य व्यवहार के रूप में अनुमति अनुपम कर्म (अनुसरण योग्य), आचरण एवं कार्य व्यवहार के रूप में है ।
सुकर्म ही सद्बुद्धि, सद्प्रवृत्ति, सुबोध, सद्विज्ञान, सामाजिकता एवं सत् संकल्प है ।
दुष्कर्म जन्य अमति अमान्य (असामाजिक) कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में कुमति, कुत्सित कर्म (विशेष रूप से निषिद्ध कर्म) आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में, दुर्मति दुष्ट -कर्म, आचरण एवं कार्य-व्यवहार के रूप में गण्य है जैसा परधन, पर नारी-पर पुरुष, पर पीड़ात्मक कार्य ।