प्रत्येक कर्म में अनुभूति एवं अनुमान क्रम उपलब्ध है । कर्मों का यह क्रम अनुभव पर्यन्त चलता रहेगा । सत्यानुभूति ही पूर्णता है । वस्तुस्थिति, वस्तुगत एवं स्थिति सत्य सहज अनुभव प्रसिद्ध है, इसलिए सम्पूर्ण अर्थ का पूर्ण अर्थ अनुभव ही है ।
समस्त कर्म अर्थोपार्जन हेतु ही हैं, जिसका प्रयोजन अनुभव है । समस्त अर्थ का उपार्जन उपयोग, सद्उपयोग एवं वितरण भी इच्छा की पूर्ति के लिए ही होता है । इच्छा की पूर्ति के मूल में अनुभव ही है । यह केवल जागृति पूर्वक व्यक्ति एवं समग्र मानव में प्रत्यक्ष है । जो अस्तित्व में है उसी का दर्शन एवं ज्ञान है । दर्शन और ज्ञान ही अनुभव है ।
मानव में सुख रूपी अभीष्ट साम्य है । अंतरंग व बहिरंग साधन का अनुभव के लिए प्रयुक्त होना ही प्रबुद्धता है । अन्यथा अप्रबुद्धता है । इन दोनों स्थितियों की सम्भावना ही वैविध्यता का आधार है ।
अन्तरंग साधन (आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा, अनुभव प्रमाण) की क्षमता के अनुरूप ही बहिरंग साधनों का नियन्त्रण है । अन्तरंग समुच्चय ही चैतन्य है । जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति ज्ञान (सत्ता) में समाहित है, इसलिए वह उसमें नियन्त्रित है ऐसे साम्य नियंत्रण में अनुभव पर्यन्त विकास और जागृति है ।
ज्ञानपूर्ण जीवन में निर्भ्रमता का उदय एवं विपरीत में भ्रम दृष्टव्य है । ज्ञान ही अनुभव, संकल्प, इच्छा, विचार एवं आशा है, जिनका पूर्ण प्रकटन चैतन्य इकाई की जागृति शीलता एवं क्षमता पर आधारित पाया जाता है ।
निर्भ्रमता पूर्ण क्षमता ही उचित एवं परिमार्जित कर्म करने में समर्थ होने के कारण अभीष्ट सिद्धि है । मानव के द्वारा प्रकट होने वाला ज्ञान तीन प्रकार से ज्ञातव्य है :- (1) भौतिक (2) बौद्धिक एवं (3) अध्यात्मिक (सहअस्तित्व) । इनका प्रत्यक्ष रूप कुशलता, निपुणता एवं पांडित्य है ।
प्रधानतः समस्त बहिरंग साधनों से पदार्थ विज्ञान की साधना तथा अन्तरंग साधनों से बौद्धिक एवं अध्यात्म विज्ञान की साधना है । पदार्थ विज्ञान व मनोविज्ञान सापेक्ष ज्ञान व अध्ययन हैं । अध्यात्म (सत्ता) निरपेक्ष (निश्चित) ज्ञान है । सापेक्षता में आय, व्यय, ह्रास,