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इनके उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता के स्थान पर सुविधा-भोग-अतिभोग का साधन बनकर रह गया है।

आशा, विचार, इच्छा रूप में बन्धनों को देखा जाता है। जीवन में ही आशा, विचार, इच्छाएँ क्रियाशील रहती हैं। आशापूर्ति, विचारपूर्ति एवं इच्छापूर्ति ही बन्धन का स्वरूप है। भ्रमवश सम्पूर्ण आशा, विचार, इच्छाओं को शरीर कार्य, शरीर सुविधा, शरीर भोगों के आपूर्ति के लिये दौड़ा लिया। मानव में कर्मस्वतंत्रतावश वैज्ञानिक उपलब्धियों के रूप में यांत्रिकता प्रमाणित हो गई। इन यंत्रों को सदुपयोग करने के स्थान पर अपव्यय करना मानव परंपरा में बाध्यता के रूप में देखा गया, आवश्यकता माना गया है। इसी के परिणामस्वरूप धरती का स्वस्थ मुद्रा अस्वस्थ मुद्रा के रूप में परिणित हो गया है। साथ ही जितने भी जीवन अनुभवमूलक विधि से जागृति होने के लिए उम्मीदें लेकर मानव परंपरा में मानव शरीर को संचालित करने के लिये तत्पर रहते हैं उन सबका जीवन आशा अथवा जीवन अपेक्षा ध्वस्त हो जाता है। इसके मूल में भ्रमित मानव परंपरा ही कारक तत्व है। इस प्रकार से भटकता हुआ जीवन संतुष्टि स्वाभाविक रूप में भोग मानसिकता को न्याय मानसिकता में, संग्रह मानसिकता को समृद्धि मानसिकता में, संघर्ष मानसिकता को समाधान मानसिकता में, द्रोह मानसिकता को पूरक मानसिकता में, विद्रोह मानसिकता को धीरता रूपी मानसिकता में, शोषण मानसिकता को विनियम मानसिकता में, युद्ध मानसिकता को सहअस्तित्व मानसिकता में, शासन मानसिकता को सार्वभौम व्यवस्था मानसिकता में, समुदाय मानसिकता को अखण्ड समाज मानसिकता में प्रयोजित होना अनुभवमूलक विधि से सहज संभावना है। यह निरंतर समीचीन है। यही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” (आदर्शवाद) का तात्पर्य है। आदर्श किसका है, भ्रमित मानव का।

ऊपर कहे सम्पूर्ण परिवर्तन बिन्दुएँ सकारात्मक होने के कारण जीवन सहज रूप में स्वीकार है। यह सब नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य से ही सूत्रित वैभव है। दृष्टा पद प्रतिष्ठा जीवन में ही निहित है न कि शरीर में। इस तथ्य को पहले इंगित करा ही चुके हैं। इसलिये “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” परिचय विधि से ही आवश्यकता को उद्गमित करता है।

अनुभवमूलक विधि से ही जीवन सहज सभी कार्यकलाप जैसे अनुभव और प्रामाणिकता के अनुरूप बोध और संकल्प, अनुभवमूलक विधि से प्राप्त बोध और संकल्प के अनुरूप चिंतन और चित्रण, ऐसे चिन्तन और चित्रण के अनुरूप तुलन और विश्लेषण तथा आस्वादन चयन है। यही अनुभव समुच्चय का तात्पर्य है। अनुभवमूलक विधि से शरीर संचालन विधि स्वयं ‘त्व’ सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित कर देता है। हर मानव व्यवस्था चाहता ही है। ऐसी व्यवस्था के लिये परंपरा स्वयं अनुभवमूलक विधि से जागृति सहज प्रमाण होना परमावश्यक है। इस क्रम में जीवन तथा शरीर का संयुक्त रूप में ही

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