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जीवन्त मानव के रूप में हर मानव प्रमाणित/मूल्यांकित होता है। शरीर में जीवन्तता अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों का क्रियाकलाप पूर्णतया जीवन का ही वैभव होना देखा गया, जीवन ही अस्तित्व में अनुभूत होना देखा गया है। अनुभवमूलक क्रम में जागृत जीवन क्रियाकलाप स्वाभाविक होना समझा गया। जलवायु, वन सहित जो धरती का शक्ल बिगड़ चुका है, जिसे विज्ञान जगत के मेधावी प्रतिभाएँ भले प्रकार से समझ चुके हैं। अनुभवमूलक पद्धति, प्रणाली, नीति को मानव परंपरा में अपनाना ही होगा, तभी धरती के ऐश्वर्य सहित मुद्रा-भंगिमाएं सुधरने की अर्थात् धरती अपने समृद्धि सहित यथास्थिति को बनाए रखने योग्य पुनः हो पायेगी। मानव सहज सुधार और उसकी यथा स्थिति का प्रमाण अनुभवमूलक प्रणाली है। भ्रम का तात्पर्य ही बिगड़ा रहना है। मानव कुल ही कर्म स्वतंत्रतावश सम्पूर्ण गलती-अपराध करने के लिये विवश हुआ है। जैसे स्वनाश सहित धरती के नाश को निमंत्रित करने का एकमात्र इकाई मानव ही है।

मानव के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रकृति में इस प्रकार का कोई उद्यम करता हुआ दिखता नहीं साथ ही मानव के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रकृति अपने-अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था सहित वैभवित होना दिखता है। इसी साक्ष्य के आधार पर मानव अपने कर्मस्वतंत्रता कल्पनाशीलता का विवेक सहित उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता को जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना एक अनिवार्यता बन चुका है। इसका मतलब यही है मानव सुधर के ही रहे अन्यथा मानव सहित जीव और वन-वनस्पति संसार संप्राणित जीवित रहता हुआ इस धरती पर दिखेगा नहीं यही धरती का शक्ल बिगड़ने का विकराल परिणाम है।

धरती के शक्ल को बिगाड़ने के लिये मानव का कर्म स्वतंत्रता का दुरूपयोग ही मूल कारण है। “जो जिसको अपव्यय करेगा उससे वह वंचित हो जायेगा” के सिद्धान्त के अनुसार धरती का अपव्ययतावश ही मानव में, से, के लिये इस सौभाग्यशाली धरती से वंचित होने का कारण बन चुका है। इसलिए आवश्यकीय सम्पूर्ण परिवर्तन अर्थात् अनुभव और जागृति सहज सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिपेक्ष्य और देश-काल में परंपरा के रूप में अनुभवमूलक विधि को अपना लेना ही सुख-सुन्दर-समाधानपूर्ण होगा। इसके लिए जागृतिपूर्ण मानव परंपरा ही एकमात्र उपाय है। जागृति सहज अधिकार सर्वमानव में, से, के लिये समान होना देखा गया है। इसके मूल में जीवन में देखा गया प्रत्येक जीवन रचना, शक्ति, बल और लक्ष्य समान है। इसे भले प्रकार से समझा गया है।

भ्रम ही बंधन है एवं बंधन मुक्ति ही जीवन जागृति है।” जीवन जागृति के लिये ही हर मानव आतुर-कातुर और आकुल-व्याकुल रहता है। अनुभव पूर्वक ही मानवापेक्षा-जीवनापेक्षा सफल होना देखा गया है। भ्रम बन्धन वश ही संग्रह सुविधा जैसी वितृष्णा में भटकना और शरीर यात्रा के अनन्तर स्वर्ग और मोक्ष के आश्वासन से ग्रसित रहना देखा गया है। इन दोनों स्थितियों में मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा प्रमाणित नहीं

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