भाग – बारह

मानव चेतना सहज आचरण सूत्र

जीव चेतना से मानव चेतना ही भ्रम से जागृति

भ्रम : अधिमूल्यन, अवमूल्यन, निर्मूल्यन दोष वश शरीर को जीवन मानना, यही सम्पूर्ण अवैध को वैध मानने का आधार है।

भ्रांति : भ्रम प्रवृत्ति वश किया गया कार्यकलाप व्यवहार विचार को सही मानना

स्वेच्छा : समाधान सहज सुखी होना।

12.1 भ्रम, भ्रान्त मानव, जागृत मानवेच्छा

  1. 1.1 भ्रमित मानव भी जागृति के प्यासे हैं। फलस्वरुप जागृति सहज रूप में लोक व्यापीकरण संभावना समीचीन है।
  2. 1.2 मनाकार को साकार करने में मानव सफल है। मन:स्वस्थता के लिए अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन विधि से अध्ययन सुलभ हुआ।
  3. 1.3 भ्रमित मानव भी सुरक्षित रहना चाहता है।
  4. 1.4 भ्रमित मानव भी न्याय सुलभता चाहता है।
  5. 1.5 भ्रमित मानव भी न्याय पाना चाहता है।
  6. 1.6 परंपरा का तात्पर्य शिक्षा संस्कार अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था व सर्वतोमुखी समाधान जो बीसवीं शताब्दी तक स्थापित नहीं हो पाया। भौतिक विचार परंपरा के अनुसार, संरचना के आधार पर चेतना निष्पत्ति बताई जाती है जबकि ईश्वरवादी विचार के अनुसार चेतना से वस्तु निष्पत्ति बताई जाती है। इन दोनों का शोध करने के उपरान्त, अनुसंधानपूर्वक पता लगा कि सहअस्तित्व नित्य वर्तमान, परम सत्य होना पाया गया। इसमें उत्पत्ति की कल्पना ही गलत निकली।
  7. 1.7 मानव लक्ष्य सार्थक, सर्व सुलभ होने पर्यन्त अध्ययन शोध में प्रवर्तित अनुसंधान रहेगा ही।
  8. 1.8 मानवीयता मानव में सफल होने के अर्थ में सम्पूर्ण अनुसंधान शोध, कार्य-व्यवस्था, अभ्यास बदलाव होना ही स्वाभाविक है।
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