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भाग – एक

पूर्ववर्ती विचार परंपरा, संविधानों की मान्यता प्रक्रिया एवं समीक्षा

1.1 पूर्ववर्ती मान्यतायें

  1. 1) रहस्यमय ईश्वर कल्याण तथा मोक्ष कारक, जीव जगत का कर्ता-धर्ता, परम और सर्वव्यापी है।
  2. 2) ईश्वर को मानते हुए ईश्वर को जानना संभव नहीं हुआ। फलत: अध्ययनगम्य न होने के कारण प्रश्न चिन्ह बने रहे।
  3. 3) रहस्यमय ईश्वर वाणी, महापुरुषों का वाणी अथवा आकाशवाणी के नाम पर प्रस्तुत पावन वचनों वाले वाङ्गमय, सर्वोपरि ग्रंथ मान लिए गए। फलस्वरूप, वे संविधान के आधार बने अथवा उन्हें संविधान मान लिया गया। ऐसी रहस्यमय ईश्वरवाणी, आकाशवाणी आदि को विभिन्न देश काल में विभिन्न समुदायों ने उल्लेख किया। फलत: परस्पर (विरोधी, विरोधाभासी) ईश्वरवाणी में प्रश्न चिन्ह बना रहा और मानवकुल सोचते ही रहा।
  4. 4) ईश्वर प्रतिनिधि, राजगुरू, राजा, देवदूत अथवा ईश्वर का अवतार संदेश वाहक गलती नहीं करते हैं, ये सब विशेष हैं, ऐसा मान लिया गया। इनको शत्रुनाशक, दु:खहारक, सर्व सौभाग्यदायी मान लिया गया। मानने का तरीका भी विभिन्न समुदायों में विभिन्न प्रकार से रहा। विभिन्न समुदायों में विभिन्न प्रकार से पनपी हुई मान्यता एवं आचरण (रूढी) एक दूसरे के बीच दीवार बनता गया। इनके नाम से पाई गई वाणियों, कहे गए वचनों को वाङ्गमय के रूप में पुनीत माना, इससे वह संविधान का आधार हुआ। ऐसी मान्यताएं समुदायगत सीमा में स्वीकार हुईं । अन्य समुदायों में अस्वीकार हुईं । इस प्रकार अंतर्विरोध और प्रश्न चिन्ह बना।
  5. 5) ईश्वर अवतारों को समुदायों ने विशेष मान लिया। तत्कालीन जन मानस उन्हें इस प्रकार से स्वीकारे हुए है कि सामान्य लोगों से जो परेशानी दूर नहीं हो पाई उसे (उन सभी असाध्य संकटों को) दूर कर दिया अथवा उन मानवों ने दूर कर दिया। ऐसे मानव को विभिन्न समुदायों ने विभिन्न संकटों के दूर होने के आधार पर उन्हें अवतार मान लिया। इस विधि से भी विभिन्न समुदायों में विभिन्न अवतारों को मानना और उनके प्रति दृढ़ता अथवा हठवादिता को स्थापित कर लेना और अन्य के प्रति शंका, विरोध, द्रोह, विद्रोह, घृणा, उपेक्षा, शोषण और युद्ध करने के क्रम में चले आए।
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